Thursday, October 15, 2015

अभिव्यक्ति की आजादी बनाम राजनीति

अभिव्यक्ति की रक्षा और राजनीति

सबसे पहले उदय प्रकाश और उनके करीब एक माह बाद पूर्व प्रधानमंत्री की भांजी नयनतारा सहगल और अशोक वाजपेयी। अब तो जैसे देश के कलमकारों में अपने अपने पुरस्कार लौटाने की हौड़ सी मची है और लगभग दो दर्जन से ज्यादा कलमजीवी अपने पुरस्कार लौटा चुके हैं। बिना किसी वैचारिक भेद और दुराव के। सभी का एक ही विरोध है कि देश में धार्मिक असहिष्णुता बढ़ रही है। शासन मौन है। बेगुनाह मारे जा रहे हैं। कलमकारों की अभिव्यक्ति पर ताला लगाने की कोशिश हो रही है और विरोध करने वालों को मौत के घाट उतारा जा रहा है। चाहे कर्नाटक के ख्यातनाम लेखक कुलबर्गी हो या फिर महाराष्ट्र के गोविन्द पनसारे और नरेन्द्र दाभोलकर की हत्या।
कलमकारों के विरोध का यह एक तरीका है। आखिर देश की संस्कृति और समाज पर आफत के दौर में कलमकार अपने शब्दों के जरिए प्रतिकात्मक विरोध ही तो जता सकता है और शुरुआत में जब प्रसिद्ध साहित्यकार उदयप्रकाश ने सितम्बर माह के पहले पखवाड़े में अपना साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाकर कुलबर्गी की हत्या का विरोध किया तो इसे प्रतीकात्मक विरोध के रूप में ही लिया गया। वह था भी प्रतिकात्मक विरोध ही, लेकिन इसके बाद नयनतारा सहगल ने दादरी में गोमांस के संदेह में एक अधेड़ को घर से बाहर निकाल कर पीट पीट कर मार दिए जाने और सत्ता के सर्वोच्च शिखर पर बैठे लोगों की चुप्पी पर आपत्ति जताते हुए अपना पुरस्कार लौटाया। अगले दिन अशोक वाजपेयी सुर्खियों में आए और अब जैसे जैसे पुरस्कार लौटाने वाले लेखकों-साहित्यकारों की संख्या बढ़ती जा रही है, वैसे वैसे इन साहित्यकारों को समर्थन और विरोध में कई धड़े सामने आ रहे हैं। सबसे ज्यादा मौका उन लोगों को मिला है, जो सोशल मीडिया को अपनी भड़ास निकालने का साधन ही समझ बैठे हैं और जिन लोगों की वजह से सोशल मीडिया पर भक्त और ...ड़वे जैस जुमले नमुदार हो रहे हैं।
दरअसल, कलमकारों का विरोध अपनी जगह है और राजनेताओं की ओर से उनका विरोध अपनी जगह। यह प्रतिष्ठापित तथ्य है कि आज तक जब जब देश और समाज के सामने कोई संकट या आफत आई है, कलमकारों ने मे प्रतिकात्मक रूप से विरोध दर्ज करवाया है। आखिर कलमकार जमात राजनेता तो हो नहीं सकती जो धरना प्रदर्शन करे? फिर भी इस बात में कोई दो राय नहीं कि अब जैसे जैसे पुरस्कार लौटाने की हौड़ मची है, उसे देखकर मंतव्य पर सवाल उठना लाजिमी है।
केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली के अलावा कांग्रेस नेता और स्तम्भकार शशि थरूर भी पुरस्कार लौटाने वालों के विरोध में खड़े नजर आ रहे हैं। अपनी बेबाकी के कारण जाने जाने वाले अभिनेता अनुपम खैर तो खुलेतौर पर इसे प्रधानमंत्री की छवि खराब करने की कोशिशों का हिस्सा बता चुके हैं। हालांकि उनकी पत्नी भाजपा की सांसद है, फिर भी उनका बयान अनुपम को बेबाकी के लिए पहचानने वाले लोगों को नहीं पचा।
सवाल पुरस्कार लौटाने या नहीं लौटाने का नहीं है। सवाल धार्मिक असहिष्णुता बढऩे पर मौन और मुखर होने का भी नहीं है। सवाल इस बात पर उठ रहा है कि जिस तरह राजनीति की तरह सोशल मीडिया पर भी भक्त और नास्तिक जैसे दो धड़े बनते जा रहे हैं और लेखकों के पक्ष और विपक्ष में विष वमन किया जा रहा है, वह देश में सांस्कृतिक साम्प्रदायिकता फैलाने की कोशिश से कम नहीं है। लोग उदयप्रकाश, नयनतारा और अशोक वाजपेयी के पुरस्कार लौटाने को राजनीति से प्रेरित बताते हैं। एक मंच से सवाल उठा कि नयनतारा को 1986 में साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला और इससे दो साल पहले दिल्ली में सिक्खों का कत्लेआम हुआ तो उन्होंने राजीव गांधी के प्रधानमंत्रीत्व काल में पुरस्कार ग्रहण क्यों किया? लेकिन यह सवाल उठाने वाले भूल जाते हैं कि 1975 में अपनी बहन इंदिरा गांधी के आपातकाल लगाने के फैसले का सबसे पहले विरोध भी नयनतारा ने ही किया था।
न्याय की तराजू के पलड़े बराबर होने चाहिए। विरोध करने वाले लोगों को यह नहीं भूलना चाहिए कि आपातकाल लगाए जाने के विरोध में राजनेताओं के साथ पत्रकारों और साहित्यकारों ने भी अपने तरीके से विरोध दर्ज करवाया था। जेल में भी डाले गए थे। उस वक्त तो इनकी सराहना की गई। आज सराहना करने वाले लोग सत्ता में है तो विरोध। क्यों भाई? क्या विरोध करने वाले दादरी में इखलाल मियां को मार दिए जाने को सही मानते हैं? क्या कर्नाटका में कुलबर्गी की हत्या को जायज ठहराते हैं? क्या महाराष्ट्र में ढोंगियों का विरोध करने वाले पनसारे व दाभोलकर को अपराधियों द्वारा दी गई सजा-- मौत वाजिब थी? यदि नहीं तो इस पर चुप्पी पर सवाल उठाना कैसे गलत हो सकता है। देश में सभी को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है। सोशल मीडिया ने लेखकों-पत्रकारों के अलावा एक और नई जमात खड़ी की है, जिसका काम अपने आकाओं को खुश करने के लिए ऊलजुलूल बातें फैलाना ही रह गया है। इस चक्कर में सोशल मीडिया के जरिए अपनी भावनाएं अभिव्यक्त करने वाले, खासकर सत्ता विरोधी टिप्पणी करने वाले और सामाजिक अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने वाले लोग इस धड़े के निशाने पर हैं। पत्रकार रवीश कुमार से ज्यादा इस दर्द को शायद कोई समझ नहीं पाए। जिस तरह रवीश को सोशल साइट्स पर गरियाया गया। उनके नाम की फेक आईडी बनाकर कमेंट्स कर उन्हें कटघरे में खड़ा करने की कोशिश की गई, उससे इस नए खतरे को समझा जा सकता है। एक धड़ा बहन गया है जो सत्ता विरोधी आवाज सुनना ही नहीं चाहता। अभिव्यक्ति की आजादी को आजादी रहने दीजिए, इसे राजनीति का अखाड़ा मत बनाइए। हमारे देश की पहचान अनेकता में एकता है। मत अनेक हो सकते हैं, देश को एक ही रहने दीजिए, वरना आज एक सत्रह साल के बच्चे ने जिस तरह कुलबर्गी हत्याकाण्ड के विरोध में अपना पुरस्कार लौटाकर समाज के मुहं पर तमाचा मारा है, उसी तरह आने वाली पीढिय़ां हमे कभी माफ नहीं करेगी।
अभिव्यक्ति की रक्षा बनाम राजनीति
सबसे पहले उदय प्रकाश और उनके करीब एक माह बाद पूर्व प्रधानमंत्री की भांजी नयनतारा सहगल और अशोक वाजपेयी। अब तो जैसे देश के कलमकारों में अपने अपने पुरस्कार लौटाने की हौड़ सी मची है और लगभग दो दर्जन से ज्यादा कलमजीवी अपने पुरस्कार लौटा चुके हैं। बिना किसी वैचारिक भेद और दुराव के। सभी का एक ही विरोध है कि देश में धार्मिक असहिष्णुता बढ़ रही है। शासन मौन है। बेगुनाह मारे जा रहे हैं। कलमकारों की अभिव्यक्ति पर ताला लगाने की कोशिश हो रही है और विरोध करने वालों को मौत के घाट उतारा जा रहा है। चाहे कर्नाटक के ख्यातनाम लेखक कुलबर्गी हो या फिर महाराष्ट्र के गोविन्द पनसारे और नरेन्द्र दाभोलकर की हत्या।
कलमकारों के विरोध का यह एक तरीका है। आखिर देश की संस्कृति और समाज पर आफत के दौर में कलमकार अपने शब्दों के जरिए प्रतिकात्मक विरोध ही तो जता सकता है और शुरुआत में जब प्रसिद्ध साहित्यकार उदयप्रकाश ने सितम्बर माह के पहले पखवाड़े में अपना साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाकर कुलबर्गी की हत्या का विरोध किया तो इसे प्रतीकात्मक विरोध के रूप में ही लिया गया। वह था भी प्रतिकात्मक विरोध ही, लेकिन इसके बाद नयनतारा सहगल ने दादरी में गोमांस के संदेह में एक अधेड़ को घर से बाहर निकाल कर पीट पीट कर मार दिए जाने और सत्ता के सर्वोच्च शिखर पर बैठे लोगों की चुप्पी पर आपत्ति जताते हुए अपना पुरस्कार लौटाया। अगले दिन अशोक वाजपेयी सुर्खियों में आए और अब जैसे जैसे पुरस्कार लौटाने वाले लेखकों-साहित्यकारों की संख्या बढ़ती जा रही है, वैसे वैसे इन साहित्यकारों को समर्थन और विरोध में कई धड़े सामने आ रहे हैं। सबसे ज्यादा मौका उन लोगों को मिला है, जो सोशल मीडिया को अपनी भड़ास निकालने का साधन ही समझ बैठे हैं और जिन लोगों की वजह से सोशल मीडिया पर भक्त और ...ड़वे जैस जुमले नमुदार हो रहे हैं।
दरअसल, कलमकारों का विरोध अपनी जगह है और राजनेताओं की ओर से उनका विरोध अपनी जगह। यह प्रतिष्ठापित तथ्य है कि आज तक जब जब देश और समाज के सामने कोई संकट या आफत आई है, कलमकारों ने मे प्रतिकात्मक रूप से विरोध दर्ज करवाया है। आखिर कलमकार जमात राजनेता तो हो नहीं सकती जो धरना प्रदर्शन करे? फिर भी इस बात में कोई दो राय नहीं कि अब जैसे जैसे पुरस्कार लौटाने की हौड़ मची है, उसे देखकर मंतव्य पर सवाल उठना लाजिमी है।
केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली के अलावा कांग्रेस नेता और स्तम्भकार शशि थरूर भी पुरस्कार लौटाने वालों के विरोध में खड़े नजर आ रहे हैं। अपनी बेबाकी के कारण जाने जाने वाले अभिनेता अनुपम खैर तो खुलेतौर पर इसे प्रधानमंत्री की छवि खराब करने की कोशिशों का हिस्सा बता चुके हैं। हालांकि उनकी पत्नी भाजपा की सांसद है, फिर भी उनका बयान अनुपम को बेबाकी के लिए पहचानने वाले लोगों को नहीं पचा।
सवाल पुरस्कार लौटाने या नहीं लौटाने का नहीं है। सवाल धार्मिक असहिष्णुता बढऩे पर मौन और मुखर होने का भी नहीं है। सवाल इस बात पर उठ रहा है कि जिस तरह राजनीति की तरह सोशल मीडिया पर भी भक्त और नास्तिक जैसे दो धड़े बनते जा रहे हैं और लेखकों के पक्ष और विपक्ष में विष वमन किया जा रहा है, वह देश में सांस्कृतिक साम्प्रदायिकता फैलाने की कोशिश से कम नहीं है। लोग उदयप्रकाश, नयनतारा और अशोक वाजपेयी के पुरस्कार लौटाने को राजनीति से प्रेरित बताते हैं। एक मंच से सवाल उठा कि नयनतारा को 1986 में साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला और इससे दो साल पहले दिल्ली में सिक्खों का कत्लेआम हुआ तो उन्होंने राजीव गांधी के प्रधानमंत्रीत्व काल में पुरस्कार ग्रहण क्यों किया? लेकिन यह सवाल उठाने वाले भूल जाते हैं कि 1975 में अपनी बहन इंदिरा गांधी के आपातकाल लगाने के फैसले का सबसे पहले विरोध भी नयनतारा ने ही किया था।
न्याय की तराजू के पलड़े बराबर होने चाहिए। विरोध करने वाले लोगों को यह नहीं भूलना चाहिए कि आपातकाल लगाए जाने के विरोध में राजनेताओं के साथ पत्रकारों और साहित्यकारों ने भी अपने तरीके से विरोध दर्ज करवाया था। जेल में भी डाले गए थे। उस वक्त तो इनकी सराहना की गई। आज सराहना करने वाले लोग सत्ता में है तो विरोध। क्यों भाई? क्या विरोध करने वाले दादरी में इखलाल मियां को मार दिए जाने को सही मानते हैं? क्या कर्नाटका में कुलबर्गी की हत्या को जायज ठहराते हैं? क्या महाराष्ट्र में ढोंगियों का विरोध करने वाले पनसारे व दाभोलकर को अपराधियों द्वारा दी गई सजा-- मौत वाजिब थी? यदि नहीं तो इस पर चुप्पी पर सवाल उठाना कैसे गलत हो सकता है। देश में सभी को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है। सोशल मीडिया ने लेखकों-पत्रकारों के अलावा एक और नई जमात खड़ी की है, जिसका काम अपने आकाओं को खुश करने के लिए ऊलजुलूल बातें फैलाना ही रह गया है। इस चक्कर में सोशल मीडिया के जरिए अपनी भावनाएं अभिव्यक्त करने वाले, खासकर सत्ता विरोधी टिप्पणी करने वाले और सामाजिक अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने वाले लोग इस धड़े के निशाने पर हैं। पत्रकार रवीश कुमार से ज्यादा इस दर्द को शायद कोई समझ नहीं पाए। जिस तरह रवीश को सोशल साइट्स पर गरियाया गया। उनके नाम की फेक आईडी बनाकर कमेंट्स कर उन्हें कटघरे में खड़ा करने की कोशिश की गई, उससे इस नए खतरे को समझा जा सकता है। एक धड़ा बहन गया है जो सत्ता विरोधी आवाज सुनना ही नहीं चाहता। अभिव्यक्ति की आजादी को आजादी रहने दीजिए, इसे राजनीति का अखाड़ा मत बनाइए। हमारे देश की पहचान अनेकता में एकता है। मत अनेक हो सकते हैं, देश को एक ही रहने दीजिए, वरना आज एक सत्रह साल के बच्चे ने जिस तरह कुलबर्गी हत्याकाण्ड के विरोध में अपना पुरस्कार लौटाकर समाज के मुहं पर तमाचा मारा है, उसी तरह आने वाली पीढिय़ां हमे कभी माफ नहीं करेगी।

Monday, October 5, 2015

स्वच्छता अभियान बनाम सफाईगीरी


राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की जंयती पर पिछले साल प्रधानमंत्री के आह्वान पर पूरे देश में स्वच्छता अभियान शुरू होने के बाद नेताओं-जनप्रतिनिधियों ही नहीं, अफसरों तक में झाड़ू लेकर फोटो खिंचवाने की हौड़ को हम साल भर बाद भी भूले नहीं है। किस तरह अभियान के नाम पर दिल्ली के कैम्पस में पहले कचरा फैलाने और बाद में इसे साफ करते हुए नेताओं-अफसरों की फोटो खिंचवाने की घटना पूरे देश में सुर्खियां बटोर गई थी। हालांकि नई बात नौ दिन, खींची तानी तेरह दिन वाली कहावत इस अभियान पर भी लागू हुई। कहना का मतलब है कि लाल किले की प्राचीर से पहली बार देशभर में सफाई का अभियान शुरू करने की प्रधानमंत्री की घोषणा और बापू की बर्थडे पर दो अक्टूबर से देश भर में अभियान का आगाज हुआ तो जैसे हौड़ सी मच गई थी सफाई करने की। रेलवे हो या फिर कोई छोटा मोटा सरकारी दफ्तर, सभी जगह झाड़ू लगाने की हौड़ सी दिखाई दी। अब इस बात पर सवाल उठाने का कोई मतलब ही नहीं रह गया था कि अभियान के नाम पर कहां कितनी झाड़ू और इसे लगाने वालों के माथे पर चढ़ी टोपियां खरीदी गई। खैर कुछ दिनों नहीं, महीनों तक अभियान चला। कहीं सैन्य छावनी में सफाई के लिए अधिकारी जवान जुटे हैं तो कहीं रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्म को चमकाया जा रहा है। प्रिंट व इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ही नहीं, सोशल मीडिया तक सफाई अभियान छाया रहा। सैकड़ों-हजारों टन कचरा साफ करने के दावे हुए। कहीं कचरे के ढेर बरसों बाद साफ होने के दृश्य सामने लाए गए, लेकिन कुछ दिन बाद जोश ठण्डा सा पड़ गया। इस बार फिर गांधी जयंती पर इस जोश ने कुछ जोर लगाया। कुछ शिकवा-शिकायत हुए, कुछ दावे-प्रतिदावे। लेकिन ये तो जैसे नेताओं की रग रग में फैला रोग है कि कोई काम करे न करे, उनके सामने कैमरे के फ्लैश जरूर चमकने चाहिए। हालांकि हाल ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अमरीका यात्रा के दौरान फोटो के लिए आगे आने की हौड़ का जिक्र समीचीन तो नहीं है, लेकिन यह इस रोग की ओर इशारा तो करता ही है।
बात चूंकि सफाईगीरी की हो रही है तो राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे की एक तस्वीर ने भी इस गांधी जयंती पर  जनता जनार्दन का ध्यान खींच ही लिया। दरअसल, श्रीमती राजे सवाईमाधोपुर के दौरे पर थी। बकौल सरकारी प्रवक्ता बापू को श्रद्धासुमन अर्पित करने के बाद वे साफ-सफाई का निरीक्षण करने निकल पड़ी। विभिन्न इलाके देखने के बाद वे सरकारी अस्पताल पहुंची तो वहां एक स्थान पर गंदगी देखकर पौछा और पानी की बाल्टी मंगवाई और पौंछा लगाना शुरू कर दिया। अच्छी बात है। मुख्यमंत्री को पौंछा लगाते देख लोगों के मन में भी सफाई के प्रति जागरूकता आएगी और अस्पताल के कारिन्दे भी आइन्दा ध्यान रखेंगे। इस भावना के साथ उन्होंने पौंछा लगाया तो इसकी सराहना की जानी चाहिए, लेकिन जो तस्वीर अखबारों में साया हुई है, उसे देखकर उनका प्रयास सफाई अभियान की बजाय गांधी जंयती पर सफाईगीरी ज्यादा लगता है। (तस्वीर देखिए- इसमें बाल्टी और पौंछा एकदम नए हैं। पौंछा पकडऩे की स्टाइल से अन्दाजा लग ही जाएगा।)

स्वच्छता वाकई एक अहम मुद्दा रह्वही है। बापू ने हमेशा स्वच्छता पर जोर दिया और यदि उनको समर्पित करके कोई अभियान शुरू होता है और खुद प्रधानमंत्री इसकी शुरुआत करते हैं तो जाहिर के समाज में एक संदेश जाता है। नेताओं-अफसरों ने भले ही अभियान को खानापूर्ति, औपचारिकता या फोटो खिंचवाने का जरिया बऽा लिया, लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि आम लोगों में इस एक साल के दौरान सफाई के प्रति जागरुकता आई है। घरों में बच्चों तक इसका असर दिखता है। बच्चे कोई कचरा इधर-ऊधर फेंकने पर बड़ों को भी टोकने से नहीं कतराते। मुझे याद आता है बरसों पुराना एक किस्सा। सेना के अधिकारी मेरे मित्र गोवा गए थे। वहां उनके बच्चे ने टॉफी खरीदने की जिद्द की। उसे टॉॅफी खरीद कर दी गई। बच्चे ने रैपर सड़क पर फेंक दिया। इसी दौरान एक पुलिस कर्मी की उस पर नजर पड़ गई। वह बच्चे का पास आया और डांटने के अंदाज में बच्चे को आदेश दिया- पिक इट अप...। वह पुलिस कर्मी बच्चे का हाथ पकड़ कर डस्टबीन के पास ले गया और कहा, -ड्रॉप दिस हीयर। बच्चा मारे घबराहट के रो रहा था। पुलिस कर्मी ने इसके बाद बच्चे को दुलारा और पास ही स्थित एक कन्फ्

इस घटना को बीस साल से ज्यादा हो गए। बच्चा आज खुद सेना में है, लेकिन उस पुलिस कर्मी की नसीहत को नहीं भूला है।

हालांकि स्वच्छता अभियान और इस उदाहरण का कोई मेल नहीं भी हो, लेकिन यह घटना भी सफाई अभियान बनाम सफाईगीरी के फर्क को बताने के लिए उचित लगा। दरअसल, प्रधानमंत्री की स्वच्छता अपील ने घर घर असर किया, लेकिन नेताओं-अफसरों के फोटो सेशन ने इस अहम अभियान को सफाईगीरी बनाकर रख दिया। बेहतर होता, नेता भी  बिना प्रचार की भूख, इस अभियान में योगदान देते तो और ज्यादा लोग इससे प्रेरित होते। बहरहाल, ये हिन्दुस्तान की तासीर है। नेता प्रचार का मोह छोड़ नहीं सकते और जनता जो करती है, उससे उन्हें सही अर्थों में कोई सरोकार नहीं रहता।

क्शनरी शॉप पर ले जाकर उसे ढेर सारी टॉफियां दिलाई और वापस मां-बाप के पास छह्वोड़ते हुए बच्चे से कहा- यू आर द फ्यूचर ऑफ दिस कंट्री..डॉन्ट थ्रो एनी गार्बेज ऑन रोड। कीप क्लिनिंग द रोड्स इज अवर ड्यूटी।

Saturday, October 3, 2015

पोकरण को इसलिए प्यार करते थे कलाम

 विनम्र श्रद्धांजलि के बहाने याद पोकरण और कलाम की

 'रेत के धोरों में पूर्णिमा की रात मुझे अच्छी लगती है। मैं पूरे चांद वाली इस रात कुछ पल अकेले बिताना चाहता हूं...और मैं पोकरण को प्यार करता हूं क्योंकि यह कुछ करने और स्वच्छंदता का एक बेहतर मंच है।' पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने 2005  में जयपुर के करीब छह सौ स्कूली बच्चों के साथ संवाद के दौरान यह बात कही तो इसमें एक गहरा राज छिपा था। यह सभी जानते हैं कि 'जनता का राष्ट्रपति' (पीपुल्स प्रेजीडेंट) कलाम ने भारत को परमाणु ताकत के रूप में प्रतिष्ठापित करने में अहम भूमिका निभाई थी और दोनों की परमाणु परीक्षण पोकरण की धरती पर हुए थे, लेकिन पोकरण के प्रति कलाम का प्यार परमाणु अभियान से लगातार 24 वर्षों तक जुड़े रहने का नतीजा था। विनम्र श्र
देश के प्रमुख परमाणु वैज्ञानिक आर. चिदम्बरम के अलावा कलाम ही एक मात्र वैज्ञानिक थे, जिन्हें भारत के दोनों परमाणु परीक्षणों से जुड़े रहने का अवसर मिला और 1974 के बाद जब 1998 में 'बुद्ध फिर मुस्कराए' तो ये कलाम का ही कमाल था कि 1995 में भारत की परमाणु परीक्षण तैयारियों को पकड़ लेने वाले अमरीकी उपग्रहों तक को भनक नहीं लग सकी। कलाम ने जैसे ही प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को हॉटलाइन पर 'बुद्ध फिर मुस्कराए' का संदेश देकर लाइन काटी और इसकी आधिकारिक घोषणा हुई तो पूरी दुनिया स्तब्ध रह गई।
ऑप शक्ति के अल्फा, ब्रावो, चार्ली....
कलाम ने ही परमाणु -दो की परिकल्पना को साकार किया था। हालांकि 1998 में हुए पांच परमाणु विस्फोटों की तैयारी कई बरसों से चल रही थी, लेकिन मई1998  के पहले 11 दिन जिस तरह से 'ऑपरेशन शक्ति' को अंजाम तक पहुंचाया गया, उसके कोड अल्फा, ब्रावो, चार्ली...आदि कलाम के अलावा किसी को पता नहीं थे। अल्फा भारतीय सेना की टुकड़ी, ब्रावो परमाणु ऊर्जा विभाग, चार्ली डीआरडीओ व डेल्टा भारतीय वायुसेना की टीमों को दिए गए साइन कोड थे।
सेव की पेटियां
ऑपरेशन शक्ति की शुरुआत सेव की पेटियां भारतीय वायुसेना के माल वाहक विमान एएन-32 में रखने के साथ हुई थी। एक मई को तड़के तीन बजे मुम्बई के सांताक्रुज हवाई अड्डे से जैसलमेर तक का हवाई सफर और जैसलमेर से पोकरण तक सेना के ट्रकों में सेव की पेटियों के साथ इस यात्रा की कमान मेजर जनरल नटराज (आर. चिदम्बरम) और 'मामाजी' (अनिल काकोडकर) के पास थी, लेकिन जैसे ही ट्रकों का कारवां सेव की पेटियां लेकर खेतोलाई गांव में बनाए गए 'डीयर पार्क' (परीक्षण नियंत्रण कक्ष) के प्रार्थना हॉल तक पहुंचा, कमान मेजर जनरल पृथ्वी राज (कलाम) के हाथ आ गई। दरअसल, लकड़ी के बक्सों में सेव नहीं, बल्कि भाभा ऑटोमिक रिसर्च सेंटर में बनाए गए परमाणु बम थे, जिन्हें बड़ी गोपनीयता के साथ मुम्बई से पोकरण लाया गया था।
व्हाइट हाउस में विस्फोट
परमाणु परीक्षण के लिए देह झुलसाने वाले गर्मी में महीनों से काम कर रहे कलाम ने सारा काम इस गोपनीयता से अंजाम दिया कि किसी को पता नहीं चल सका कि भारत इतना बड़ा धमाका करने वाला है। उन्होंने अल्फा कम्पनी की मदद से पांच गहरे कुए खुदवाए थे। इनके नाम भी अजीब थे। इनमें से दो सौ मीटर गहरे जिस कुएं में हाइड्रोजन बम का परीक्षण किया गया, उसे व्हाइट हाउस का नाम दिया गया था, जबकि फिसन बम के कुए को ताजमहल और पहले सबकिलोटन बम वाले कुए को कुम्भकर्ण का नाम दिया गया। बाकी दो कुए एनटी-1 व एनटी-2 दूसरे दिन किए गए परीक्षणों के लिए आरक्षित रखे गए थे।
फौजी बनकर घूमते थे
पूरे अभियान के दौरान कलाम व अन्य वैज्ञानिक न सिर्फ फौजी नाम से रहे, बल्कि उन्होंने पूरे अभियान के दौरान फौज की वर्दी ही पहने रखी। पोकरण के बस स्टैण्ड पर कई बार ये वैज्ञानिक फौज की गाडिय़ों में घूमने आते थे, लेकिन इनकी हस्ती लोगों को भी तभी पता चली, जब दूसरे परमाणु परीक्षण की खबरें सामने आई।