Saturday, October 28, 2017

बुरे फंसे खाड़ी मे्ं जाकर

हम बेवतनों को याद वतन की मिट्टी आई है...
-सुरेश व्यास
जयपुर। एक तरफ जहां देश की नरेंद्र मोदी सरकार अन्तरराष्च्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतों में लगातार गिरावट के बावजूद भी पेट्रोल पम्पों पर पेट्रोल-डीजल महंगा होने के कारण आलोचना का शिकार हो रही है, वहीं दूसरी ओर तेल की कम हो रही कीमतों ने खाड़ी देशों की आर्थिक स्थिति को ऐसा हिला दिया है कि इसका बुरा असर वहां मजदूरी करने गए विदेशी मजदूरों की मानसिक व आर्थिक स्थिति पर पड़ने लगा है। हाल ही एक रिपोर्ट आई है, जिसके मुताबिक अकेले ओमान में भारत से अच्छी खासी धनराशि कमाने गए करीब पांच दर्जन भारतीय नागरिकों के फंसे होने का उल्लेख हे। इसमें करीब दो दर्जन लोग राजस्थान के भी हैं। हालत यह है कि इन मजदूरों को मजबूरन दो दिन में एक बार रोटी खानी पड़ रही है, ताकि वे घर वापसी के इंतजामों के लिए पैसा बचा सके।

ओमान में फंसे भारतीय मजदूरों ने वतन वापसी के लिए दूतावास के गुहार लगाई है, लेकिन वहां से भी औपचारिकताएं पूरी होने में लगभग एक माह का समय लगने की सम्भावना में खाड़ी देश में फंसे मजदूरों के परिवारों को भी चिंता में डाल रखा है। मजदूरों ने मीडिया एजेंसियों के साथ अपनी तकलीफ साझा की है। ये वे मजदूर हैं, जो दिल्ली की एक प्लेसमेंट एजेंसी के जरिए ओमान गए थे। मजदूरों का कहना है कि इन्हें वहां की एक कंस्ट्रक्शन कम्पनी में मिस्त्री व कारपेंटर के रूप में लगाने का वादा किया गया, लेकिन मंदी की मार ऐसी पड़ी कि कम्पनी ने पहले तनख्वाह देने में देरी शुरू की और कुछ माह बाद तनख्वाह देनी बंद भी कर दी। मजदूरों ने हक मांगा तो पहले उनके रहने के कमरों की बिजली तक काट दी गई और बाद में उन्हें खदेड़ तक दिया गया। अब मजदूरों को न खाने को रोटी मिल रही है और न ही पीने को पानी।

मिट्टी में मिले सपने
राजस्थान की एक मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक प्रदेश के सीकर, चूरू, झुंझुनूं व नागौर जिलों के कई मजदूर निजी प्लेसमेंट एजेंसी के जरिए मस्कट गए थे। वहां उन्हें अल रमूज ग्रुप ऑफ कम्पनीज में मिस्त्री व कारपेंटर के रूप में भर्ती किया गया। कुछ महीने बाद ही कम्पनी ने काम से हाथ खींचने शुरू कर दिए और मिस्त्री व कारपेंटर्स से पत्थर तुड़वाने, जमीन खुदवाने व सफाई करवाने का काम लिया जाने लगा। छह माह के दौरान कम्पनी ने तनख्वाह भी दो माह की ही दी। फिर तनख्वाह देनी भी बंद कर दी गई। वेतन मांगा तो खाना-पानी बंद कर दिया गया। पिछले 15 दिन से ये मजदूर भूखे मरने की स्थिति में हैं।

वापसी का भी मांग रहे पैसा
राजस्थान के चूरू जिले के तालछापर से मस्कट में नौकरी करने गए एक मजदूर का आरोप है कि उसने अच्छी कमाई के चक्कर में दिल्ली की प्लेसमेंट कम्पनी को 80 हजार रुपए देकर गए थे। अब जब वेतन और खाना-पानी नहीं मिल रहा तो मजदूरों ने कम्पनी से वापस वतन भेजने का अनुरोध किया, लेकिन मजदूरों से उल्टे साठ हजार रुपए मांगे जा रहे हैं। एक तरफ तनख्वाह रुकी पड़ी है। खाने के लाले हैं। फिर 60 हजार रुपए कहां से लाएं। अब भारत सरकार ही हस्तक्षेप करे तो जान बच सकती है।

मंदी ने बिगाड़ी हालत
जानकारों का कहना है कि ये सब कच्चे तेल की कीमतों में कमी का असर है। पिछले एक साल से अरब देशों कि हालत खराब है। सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात को छोड़ दें तो हर खाड़ी देश मंदी की मार झेल रहा है। पिछले साल करीब 58 हजार लोगों को रोजगार देने वाली कम्पनी ने अचानक काम बंद कर दिया, सिर्फ मंदी की वजह से। असर पड़ा गरीब मजदूरों पर, कारण कि इन देशों में अधिकांश मजदूर विदेशी हैं। इन मजदूरों को काम नियोक्ता कम्पनियों से हुए करार के आधार पर मिलता है। कई कम्पनियां मजदूरों के पासपोर्ट अपने पास रख लेती हैं। मंदी के दौर में तनख्वाह चुकाना तो दूर कम्पनियां घर लौटने के इच्छुक मजदूरों से एवज में पैसा तक मांगती हैं पासपोर्ट लौटाने के लिए। ओमान के मस्कट में फंसे मजदूरों के साथ भी ऐसा ही हो रहा है।

लाखों भारतीय करते हैं काम
खाड़ी देशों की रिपोर्टिंग में लम्बा अनुभव रखने वाले केरल के पत्रकार रेजिमोहन कुट्टप्पन ओमान सरकार के गत अगस्त माह तक के आधिकारिक आंकड़ों का हवाला देते हुए कहते हैं कि अकेले ओमान में करीब 7 लाख भारतीय मजदूर व कामगार काम कर रहे हैं,लेकिन मंदी का सीधा असर विदेशी कामगारों पर पड़ रहा है। न सिर्फ ओमान, बल्कि बहरीन, कुवैत व कतर के अलावा सऊदी अरब व यूएई की हालात भी कमोबेश ऐसे ही हैं। हां, यह जरूर है कि ओमान सबसे ज्यादा प्रभावित है।

कितना कर्ज लें
विश्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार कच्चे तेल की कमी के कारण ओमान में राजकोषीय घाटा लगातार बढ़ रहा है। तेल उत्पादक देशों का इस स्थिति में उत्पादन घटाने पर जोर भी कोढ़ में खाज का काम कर रहा है। इस हालत में ओमान अन्य देशों से कर्ज लेने पर मजबूर है। उसकी उम्मीद अब सिर्फ और सिर्फ पर्यटन व मछली पालन पर टिकी नजर आ रही है। ओमान के श्रम विशेषज्ञों का कहना है कि मंदी के कारण कामबंदी, वेतन में कटौती, वेतन का भुगतान नहीं होना और मजदूरों की सारसम्भाल ओमान की सबसे बड़ी समस्या बनती जा रही है और इसका एकमात्र कारण मंदी ही है।

नित नई गुहार

भारतीय विदेश मंत्रालय का अनुमान है कि खाड़ी देशों में रह रहे हजारों भारतीय मजदूरों पर तेल की कीमतों में मंदी का बुरा असर पड़ा है। एक मीडिया रिपोर्ट ने सूचना के अधिकार के तहत जुटाई गई जानकारी का हवाला देते हे रिपोर्ट किया है कि अकेले मस्कट में गत जुलाई तक भारतीय मजदूरों को तनख्वाह नहीं मिलने या अन्य समस्याओं के बारे में भारतीय दूतावास को लगभग डेढ़ हजार शिकायतें मिल चुकी है। पिछले साल भी लगभग ऐसी ही करीब दो हजार शिकायतें आई थी, लेकिन इस साल शिकायतों की संख्या लगातार बढ़ रही है।

Sunday, October 15, 2017

जोर का झटका धीरे से लगा भाजपा को

गुरदासपुर उप-चुनाव
-सुरेश व्यास
पंजाब के गुरदासपुर में संसदीय और केरल के वंगारी विधानसभा उपचुनाव में करारी हार से भाजपा नेताओं को चौंका दिया है। कांग्रेस ने गुरदासपुर संसदीय चुनाव में न सिर्फ अब तक की सबसे बड़ी जीत हासिल की है, वहीं केरल में कांग्रेस के नेतृत्व वाले यूडीएफ के प्रत्याशी ने अपनी सीट बरकरार रख आक्रामक प्रचार के जरिए इस दक्षिणी राज्य में खूंटा गाढ़ने की भाजपा की कोशिशों को बड़ा झटका दिया है।

दीपावली से महज चार दिन पहले कांग्रेस पर बरसी दोहरी वोट लक्ष्मी यानी दोनों उपचुनावों में मिली जीत जहां गुजरात और हिमाचल प्रदेश के प्रस्तावित  विधानसभा चुनावों में कार्यकर्ताओं का मनोबल ऊंचा करने की दिशा में संजीवनी का काम करेगी, वहीं लगातार चुनावी जीत के पहाड़ पर चढ़ी भाजपा को आत्ममंथन के लिए विवश करेगी। कारण कि भाजपा नेता न सम्भले तो न सिर्फ गुजरात व हिमाचल प्रदेश में विधानसभा चुनाव बल्कि राजस्थान में प्रस्तावित दो संसदीय उपचुनाव व एक विधानसभा उपचुनाव में भी आर्थिक नीतियों व पेट्रोलियम पदार्थों की लगातार बढ़ रही महंगाई को लेकर अंडर करंट के रूप में मौजूद जनाक्रोश पार्टी के लिए खतरे की घंटी बजा सकता है, भले ही देश में कुछेक अपवादों को छोड़कर उप चुनावों के नतीजों का फायदा सत्ताधारी पार्टी को ही मिलने की परम्परा सुस्थापित रही है।


यह आशंका इसलिए भी खड़ी होती है क्यों कि भाजपा नेता हकीकत को स्वीकार करने से बचते रहे हैं। अर्थ व्यवस्था को लेकर पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमनोहन सिंह से लेकर भाजपा के दिग्गज नेता यशवंत सिन्हा और रिजर्व बैंक से लेकर अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष तक के अनुमानों को भाजपा के नेताओं ने एक तरह से नकारा ही है। और तो और गुरदासपुर उप चुनाव के नतीजों से कुछ घंटे पहले वाशिंगटन यात्रा पर गए केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली ने जीएसटी, नोटबंदी व अर्थ व्यवस्था को लेकर पूछे गए सवालों पर.यह जवाब देकर कि गुजरात के नतीजे आने दीजिए पता चल जाएगा, जनता किसके साथ है भाजपा नेताओं के दंभ को ही रेखांकित किया है।


जीएसटी की मार तो नहीं?
जीएसटी लागू होने के बाद देशभर में शुरू हुए आन्दोलनों में से एक सबसे बड़ा आंदोलन गुजरात के सूरत में सामने आया और आज भी वहां के लोगों में जीएसटी लागू करने के तरीके को लेकर भाजपा सरकार के प्रति आक्रोश है, यह रोजाना सामने आ रहा है। न सिर्फ गुजरात बल्कि देशभर में व्यापारियों में जीएसटी पर आक्रोश है और जब पानी सिर के ऊपर से गुजरने की स्थित आई है तो केंद्र सरकार सम्भली भी है, लेकिन व्यापारियों को अब भी राहत मिलना बाकी है। ऐसे में यदि सवाल उठें कि क्या गुरदासपुर और वंगारी (केरल) के उप चुनाव परिणाम जीएसटी को लेकर भाजपा के प्रति बढ़ रही नाराजगी का नतीजा हैं? क्या ये बढ़ रही महंगाई रोकने में भाजपा के प्रति पनप रहे गुस्से का कोई संकेत है? क्या मोदी सरकार की आर्थिक नीतियों पर उबल रहे गुस्से ने चुनावी नतीजों को प्रभावित किया है, तो इसे भाजपा नेतृत्व को गम्भीरता से लेना होगा यह मानकर कि कम से कम गुरदासपुर में इतनी करारी हार कहीं इसका संकेत तो नहीं है?

झटका तो लगा है...
हालांकि इन सवालों को लेकर भाजपा की कोई प्रतिक्रिया नहीं आई है, लेकिन भाजपा के नेता अन्दरखाने मानने लगे हैं कि गुरदासपुर में बड़ी हार एक झटका तो है। कारण कि अभिनेता से नेता बने विनोद खन्ना गुरदासपुर से चार बार सांसद रहे और यह सीमावर्ती इलाका हिन्दूवादी मतदाताओं के बाहुल्य के कारण भाजपा का गढ़ बन चुका था। विनोद खन्ना का गत 27 अप्रेल को मुम्बई में निधन हुआ। इसके बाद हुए उपचुनाव से पहले माना जा रहा था कि उप चुनाव छह महीने पहले ही विधानसभा चुनाव में भाजपा-अकालीदल गठबंधन की करारी हार से टूटा हौंसला वापस खड़ा करने में मदद करेगा। पंजाब कांग्रेस की गुटबाजी के चलते भी भाजपा आशान्वित थी, लेकिन उसे इतनी बड़ी हार का शायद अन्दाजा भी नहीं था।

कांग्रेस की सबसे बड़ी जीत
गुरदासपुर उपचुनाव में प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष, पूर्व लोकसभाध्यक्ष स्व. बलराम जाखड़ के पुत्र और कांग्रेस प्रत्याशी सुनील जाखड़ की यह इस संसदीय क्षेत्र में अब तक की सबसे बड़ी जीत है। पिछले आम चुनाव में भाजपा प्रत्याशी के रूप में विनोद खन्ना ने 1.36 लाख मतों से जीत हासिल की थी। उन्होंने कांग्रेस के दिग्गज नेता और तत्कालीन प्रदेशाध्यक्ष प्रतापसिंह बाजवा को हराया था। हालांकि खन्ना 1980 के संसदीय चुनाव में कांग्रेस प्रत्याशी सुखबंश कौर भिंडर की 1.51 लाख मतों से जीत का रिकार्ड नहीं तोड़ पाए, लेकिन आज घोषित हुए उप चुनाव के नतीजों में जाखड़ ने यह रिकार्ड भी तोड़ दिया और 1,93,219 मतों से भाजपा प्रत्याशी मशहूर व्यवसायी और देश में सबसे बड़ी सिक्यूरिटी एजेंसी चलाने वाले स्वर्णसिंह सलारिया का लोकसभा पहुंचने का सपना चकनाचूर कर दिया। इस उप चुनाव में पंजाब के पूर्व उप मुख्यमंत्री सुखबीर सिंह बादल की प्रतिष्ठा भी भाजपा के पोल मैनेजर के रूप में दांव पर भी और यह उनके व अकाली दल के लिए विधानसभा चुनाव की हार के सदमे से उबरने का मौका भी था, लेकिन बादल नाकाम रहे। विधानसभा चुनाव में भाजपा-अकाली दल ने हालांकि गुरदासपुर की 9 में से 2 विधानसभा सीटों पर जीत हासिल की थी, लेकिन संसदीय उपचुनाव में कांग्रेस प्रत्याशी को सभी नौ विधानसभा क्षेत्रों में भारी बढ़त मिली।


संकेत है, सम्भल जाओ
हालांकि मात्र गुरदासपुर संसदीय उपचुनाव के नतीजे को भाजपानीत केंद्र की एनडीए सरकार की आर्थिक नीतियों के खिलाफ जनादेश नहीं माना जा सकता, लेकिन भाजपा को आगामी गुजरात व हिमाचल प्रदेश के विधानसभा चुनावों के दौरान सम्भल कर चलने का संकेत जरूर है। क्योंकि भाजपा की गुरदासपुर में हार कांग्रेस के लिए गुजरात-हिमाचल में भी संजीवनी का काम करेगी। कांग्रेस किस कद्र उत्साहित है, उसका अंदाज गुरदासपुर जीत के बाद आई कांग्रेस नेताओं की प्रतिक्रियाओं से लगाया जा सकता है।


#Gurdaspurbypoll #INC #BJP #GST #PMOIndia

Thursday, October 12, 2017

#Gujarat #ElectionCommission

गुजरात में चुनाव की तारीखों का एलान न कर चौंकाया चुनाव आयोग ने
-सुरेश व्यास
चुनाव आयोग ने गुरुवार को गुजरात में विधानसभा चुनाव की तारीखों का एलान नहीं करके देश की जनता को चौंका दिया। आयोग ने अपनी प्रेस कॉन्फ्रेंस में सिर्फ हिमाचल प्रदेश की 68 विधानसभा सीटों के लिए एक चरण में 9 नवम्बर को चुनाव करवाने की घोषणा की। इसके बाद से न सिर्फ राजनीतिक क्षेत्रों बल्कि सोशल मीडिया तक में यह सवाल उठने लगा है कि आखिर चुनाव आयोग ने गुजरात में चुनाव की तारीखों का एलान न करने का फैसला क्यों किया। कांग्रेस सरीखी विपक्षी पार्टियां हालांकि इसे लेकर सीधे तौर पर चुनाव आयोग को निशाने पर ले रही है, लेकिन आयोग ने इसके पीछे जो तर्क दिया है, वह भी लोगों के गले नहीं उतर रहा।
केंद्रीय सूचना और प्रसारण मंत्रालय के अधीन कार्यरत प्रेस इन्फोर्मेशन ब्यूरो ने चुनाव आयोग की प्रेस कॉन्फ्रेस के लिए जो निमंत्रण दिया था, उसमें भी यह साफ उल्लेख किया गया था कि चुनाव आयोग अपराह्न 4 बजे गुजरात और हिमाचल प्रदेश में विधानसभा चुनावों का कार्यक्रम घोषित करेगा। इसी को लेकर देशभर में इंतजार भी हो रहा था, लेकिन मुख्य चुनाव आयुक्त जोती ने सिर्फ हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनावों की तारीख घोषित की तो देश का चौंकना वाजिब था।
चुनाव आयोग का कहना है कि नियमानुसार उसे 45 दिन में चुनाव की प्रक्रिया पूरी करनी होती है। गुजरात विधानसभा का कार्यकाल चूंकि आगामी जनवरी में खत्म हो रहा है और हिमाचल विधानसभा का कार्यकाल दिसम्बर में ही खत्म हो जाएगा। इसलिए पहले वहां चुनाव करवाने जरूरी हो गए। यदि गुजरात के चुनाव कार्यक्रम की घोषणा भी आज की जाती तो चुनाव प्रक्रिया में 60 दिन लग जाते। मुख्य चुनाव आयोग ने इसके लिए केंद्रीय विधि मंत्रालय के कुछ नोट भी पढ़कर सुनाए, लेकिन उनकी यह बात गले नहीं उतर रही। 
पिछली बार भी तो साथ हुई थी घोषणा
पांच साल पहले भी चुनाव आयोग ने 4 अक्टूबर को हिमाचल प्रदेश व गुजरात के चुनावों की तारीखों का एलान एक साथ किया था। ऐसे में सवाल उठ रहा है इस बार ऐसा क्या हो गया कि चुनाव आयोग को ऐनवक्त पर अपना फैसला बदलना पड़ा। सोशल मीडिया पर कई लोग सवाल भी उठा रहे हैं कि क्या चुनाव आयोग सरकार के दबाव में आ गया है? क्या प्रधानमंत्री व गुजरात की सरकार को कुछ लोकलुभावन घोषणाएं करने का वक्त देने के लिए ऐसा किया गया है?
इस बीच,स्क्रोल की एक मीडिया रिपोर्ट में एक पूर्व मुख्य निर्वाचन अधिकारी, जिनका नाम नहीं दिया गया है, के हवाले से कहा गया है कि आमतौर पर चुनाव आयोग इस तरह की परिस्थितयों को टालने की कोशिश करता है। पूर्व निर्वाचन आयुक्त ने चुनाव आयोग के आज के फैसले पर हैरानी भी जताई है।
कांग्रेस का आरोप
दूसरी ओर, कांग्रेस ने तो खुलकर आरोप लगाया है कि चुनाव आयोग केंद्र सरकार के दबाव में काम कर रहा है। कांग्रेस प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने एक वीडियो मैसेज के जरिए कहा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 16 अक्टूबर को गुजरात के दौरे पर जा रहे हैं। यदि आज चुनाव आयोग चुनाव कार्यक्रम घोषित कर देता तो मोदी को एक स्टार कैम्पेनर के तौर पर जाना पड़ता और आचार संहिता लगने के कारण वे कोई लोकलुभावन घोषणा भी नहीं कर पाते।
घबराहट तो है...!
कांग्रेस का यह खुद का नजरिया हो सकता है, लेकिन राजनीतिक प्रेक्षक भी चुनाव आयोग के फैसले से हैरान हैं। इनका मानना है कि गुजरात में पिछले 22 वर्षों से एक छत्र राज करने वाली भाजपा को इस बार कड़ी चुनौती मिल रही है। सरकार के प्रति असंतोष के अलावा जीएसटी भी भाजपा के प्रति लोगों की नाराजगी का एक कारण है। इसके अलावा गुजरात में जिस तरह पाटीदार आंदोलन ने पहले भाजपा की नींद उड़ा रखी थी, उसी तर्ज पर दलितों का असंतोष भी भाजपा के लिए चिंता का विषय बना हुआ है। इसे भांप कर ही गुजरात के मुख्यमंत्री विजय रूपानी लगातार लोकलुभावन घोषणाएं कर रहे हैं। उन्होंने सवर्णों को आरक्षण के नाम पर आयोग गठित करने का फैसला तो किया ही है, साथ ही उन्होंने पाटीदारों को साधने के लिए पाटीदार आंदोलन के दौरान हुए पुलिस अत्याचारों की जांच का आदेश दिया है। इसी तरह पाटीदार नेता हार्दिक पटेल पर लगे राजद्रोह तक के मुकदमे वापस लेने की सरकार की ओर से प्रत्यक्ष और परोक्ष पेशकश की जा चुकी है। हाल ही मुख्यमंत्री रूपानी ने युवाओं का गुस्सा कम करने के लिए गुजरात में नए औद्योगिक क्षेत्रों की स्थापना की घोषणा करते हुए कहा कि इससे एक लाख युवाओं को रोजगार के अवसर मुहैया हो सकेंगे।
..ताकि मौका मिल जाए
प्रेक्षकों का कहना है कि लगातार घोषणाओं की झड़ी गुजरात में भाजपा नेताओं की चिंता को जाहिर कर रही है। इसके अलावा सोशल मीडिया पर जिस तरह लोग स्वतःस्फूर्त तरीके से धूजतो गुजरातविकास गांडो थय ग्यौ जैसे कैम्पेन चला रहे हैं, जिस तरह कांग्रेस ने गुजरात को अपनी नाक का सवाल बना रहा है और कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी लगातार राज्य के दौरे कर रहे हैं। सोशल इंजीनियरिंग की जा रही है। सोशल मीडिया पर कांग्रेस का अभियान कांग्रेस आवे छै आक्रामक हो रहा है, उससे भी भाजपा की चिंता बढ़ना लाजिमी है।

राजनीतिक पंडितों का मानना है कि चुनाव आयोग का गुरुवार को गुजरात विधानसभा के चुनाव का कार्यक्रम घोषित नहीं करना, भाजपा के लिए एक बड़ी राहत है। हालांकि आयोग ने कहा कि गुजरात में 18 दिसम्बर से पहले चुनाव करवा दिए जाएंगे, लेकिन जब तक चुनाव कार्यक्रम घोषित नहीं हो जाता, गुजरात भाजपा और गुजरात सरकार के लिए लोगों की नाराजगी दूर करने के लिए नई लोकलुभावन घोषणाएं करने का मौका तो है ही।
#Gujarat #ElectionCommision #BJP #Congress #PMO #CEC #HimachalPradesh

Wednesday, October 11, 2017

#Lynching @ Jaisalmer


दबंगों ने मार डाला एक लोक कलाकार को
-सुरेश व्यास
जयपुर। ये दर्दनाक खबर है भारत-पाकिस्तान सीमा से सटे जैसलमेर जिले एक छोटे से गांव की। पोकरण तहसील के फलसूंड इलाके के दांतल गांव में दबंगों ने एक लोक कलाकार को पीट पीट कर मार डाला। सिर्फ इसलिए कि वह बताई गई राग में भजन नहीं गा सका। इतना ही नहीं गांव में दहशत का आलम यह है कि न सिर्फ मृतक लोककलाकार बल्कि उसकी जाति के 40 परिवारों के लगभग 200 लोग घर छोड़कर जिला मुख्लायय पर इधर-उधर छिपने को मजबूर हो रहे हैं। पुलिस ने हालांकि हत्या के आरोप में गांव के भोपे को गिरफ्तार कर लिया है, लेकिन उसके दो भाई अब भी पकड़ से दूर है।
मांगणियार कलाकार का एक सांकेतिक चित्र

घटना वैसे तो पिछली 27 सितम्बर की है। पुलिस में एफआईआर इसके चार दिन बाद दर्ज हुई, लेकिन मामला छिपा रहा। आखिर एक साथ एक ही जाति के 200 लोग घर छोड़कर जैसलमेर पहुंचे तो राज खुला। पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल) जैसे संगठन ने मामले को उठाया तो आज यह मामला दुनिया की नजर में पूरी तरह सामने आ सका है। राजस्थान के प्रमुख साहित्यकार कृष्ण कल्पित ने घटना के बाद अपनी फेसबुक वॉल पर लिखा है कि यह कलाओं के इतिहास की शायद प्रथम घटना है जब एक कलाकार को किसी विशेष राग को सही ढंग से नहीं गाने के लिए पीटपीट कर मौत के घाट उतार दिया गया हो।

यह है घटनाक्रम
जो घटना सामने आई है, उसके मुताबिक अभियुक्त रमेश दांतल गांव का भोपा है। नवरात्रा के दौरान मांगणियार को मंदिर में राग परचा गाने के लिए बुलाया जाता है। लोक कलाकार यह राग छेड़ता है और भोपा अपने में देवी का परचा आने का आभास करवाते हुए लोगों की दिक्कतों को सुनकर समाधान सुझाता है। दांतल गांव में ही मांगणियारों के 40 परिवार है। इस गरीब जाति के लोगों का जीवन बसर लोक संगीत से ही होता है। गरीबी का आलम यह है कि आज भी इन्हें एक गीत के बदले 10 रुपए का मेहनताना मिलाता है। गांव में यजमान के यहां उत्सव होने पर कुछ राशि के अलावा ठंडा भोजन, कपड़े आदि जरूर मिल जाते हैं। गायन का अवसर नहीं होने पर मनरेगा में मजदूरी ही इनके जीवन निर्वाह का साधन है। जैसलमेर के कई गांवों में लंगा और मांगणियार लोक कलाकारों की यही स्थिति है।

क्योंकि वह शुद्ध राग न गा सका
मृतक लोक कलाकार आमद खां मांगणियार पर यह आरोप लगा कि वह शुद्ध राग गाकर देवी को प्रसन्न नहीं कर सका। इसकी वजह से देवी ने भोपे रमेश कुमार सुथार को पर्चा (चमत्कार) नहीं दिया। इसी से नाराज होकर रमेश व उसके दो भाइयों ताराराम व श्याम सुधार ने चार बच्चों के पिता 50 वर्षीय आमद खां को घर से उठाया और पीट पीट कर मार डाला।



दो बार पुलिस को खाली लौटाया
जैसलमेर के पुलिस अधीक्षक गौरव यादव के अनुसार फलसूंड पुलिस थाने के आमद की मौत की खबर करीब 24 घंटे बाद लगी। पुलिस वहां पहुंची तो सरपंच व अन्य लोगों ने यह कहकर पुलिस को लौटा दिया कि आमद की मौत हार्ट अटैक से हुई है। इसके बाद गांव में तनाव की सूचना पर पुलिस फिर पहुंची, लेकिन ग्रामीणों ने पुलिस को लौटा दिया। फिर आमद के जोधपुर से पहुंचे कुछ रिश्तेदारों के जरिए हकीकत पता चली और पुलिस ने दो अक्टूबर को हत्या का मामला दर्ज किया। आमद का शव कब्र से बाहर निकाल कर पोस्टमार्टम करवाया गया। पोस्टमार्टम रिपोर्ट में चोटों और मारपीट के कारण सदमा लगने से मौत की पुष्टि हुई। इस पर भोपा रमेश सुथार को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया।



दबंगई का डर
पीयूसीएल के प्रतिनिधियों की मानें तो गांव में दबंगों के रुतबे का आलम यह है कि आमद खां की मय्यत में शामिल होने आए लोगों को कथित रूप से हाथ-मुंह धोने के लिए अन्य  लोगों ने पानी तक उपलब्ध नहीं करवाया। चार दिन तक गांव के अन्य लोग आमद खां के परिवार पर गांव की बात गांव में ही रखने का दबाव बनाते रहे। कुछ लोगों की ओर से कुछ धनराशि का लालच दिए जाने की बात भी सामने आ रही है। ऐसे में आमद की मौत के चार दिनों तक तो एफआईआर तक दर्ज नहीं करवाई जा सकी। आखिर आमद के कुछ पढ़े लिखे रिश्तेदार आए और उन्होंने एफआईआर करवाने का रास्ता बताया। इसके बाद तो न सिर्फ आमद बल्कि गांव में रहने वाले अन्य मांगणियार परिवारों का भी जीना हराम हो गया। कारण कि एफआईआर दर्ज करवाने को गांव के नियम कायदे तोड़ने वाला माना गया। मांगणियारों के खिलाफ पूरा गांव एक हो गया। नतीजन पहले तो इन 40 परिवारों के लोग अपने मवेशी व सामान आदि छोड़कर गांव से निकलने को मजबूर हुए। ये लोग पास के ही बालड गांव में खुली छत के नीचे रहे। वहां इनके कुछ रिश्तेदार हैं। जब वहां भी खाने पीने की व्यवस्था पूरी तरह नहीं हो पाई तो इन परिवारों के लगभग 200 लोग 9 अक्टूबर जैसलमेर जिला मुख्यालय आ गए। परकोटे में इधर उधर भटकते रहे। जिला प्रशासन को बात पता चली तो गांव के सरपंच को बुलाकर मामला सलटाने को कहा गया, लेकिन वह भी कुछ नहीं कर पाया।

राजपूत बाहुल्य गांव
पोकरण तहसील का दांतल राजपूत बाहुल्य गांव है। वहां राजपूतों के लगभग 250 घर हैं। इसके अलावा आरोपी भोपे की सुथार जाति के 15, मांगणियारों के 40, चारणों के 20 और मेघवालों के 50 घर हैं। आज की तारीख में सभी जातियां मांगणियारों के खिलाफ सिर्फ इसलिए उठ खड़ी हुई है कि एफआईआर के कारण गांव की बात गांव के बाहर चली गई और गांव की बदनामी हुई।


जाति नहीं इस लिंचिंग कारण
यहां हुई लिंचिंग का मृतक के मुसलमान होने से जोड़ा जाना एक गलती होगी। यदि ऐसा होता तो आमद खां जैसे मांगणियार गांवों के मंदिरों में भजन नहीं गाते। मांगणियार राजस्थान की वैसे तो एक मुस्लम जाति है, लेकिन इनका रिश्ता इस्लाम से कहीं ज्यादा संगीत से है और इसी वजह से इनकी राग-रागिनियों ने फ्रांस में पहली हुए भारत महोत्सव के बाद से दुनिया भर में रंगत बिखेर रखी है।


सांकेतिक चित्र- मांगणियार कलाकार

#Lynching #Rajasthan #FolkArtist #Jaisalmer

Tuesday, October 10, 2017

Rajasthan Byeelection

राजस्थान में कांग्रेस-भाजपा के लिए अग्नि-परीक्षा से कम नहीं है उपचुनाव
-सुरेश व्यास
जयपुर। राजस्थान में अजमेर और अलवरी संसदीय क्षेत्र तथा भीलवाड़ा जिले की मांडलगढ़ विधानसभा सीट के लिए प्रस्तावित उप चुनाव सत्ताधारी भाजपा और कांग्रेस दोनों के लिए अग्नि परीक्षा से कम नहीं है। हालांकि चुनाव आयोग ने अभी इन तीन क्षेत्रों के लिए उप चुनाव की तारीखों का एलान नहीं किया है, लेकिन इन चुनावों ने अभी से दोनों ही दलों के नेताओं के दिल में धुकधुकी मचा रखी है। यही कारण है कि मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे अभी से अजमेर व अलवर के धुआंधार दौरों में व्यस्त हो रही है तो प्रदेश कांग्रेसाध्यक्ष सचिन पायलट के अजमेर के अजमेर दौरे व मुख्यमंत्री के गृह जिले झालावाड़ तक निकाली गई किसान न्याय यात्रा में उमड़ी भीड़ ने कांग्रेस नेताओं को उत्साहित कर रखा है।
अजमेर संसदीय सीट पूर्व केंद्रीय मंत्री सांवरलाल जाट के गत अगस्त में निधन से खाली हुई है, जबकि अलवर सीट सांसद चांदनाथ के निधन के बाद से खाली है। कांग्रेस इन दोनों सीटों को हथिया कर भाजपा को अगले विधानसभा चुनाव से पहले दबाव में लाने की कोशिश में है। इसी तरह मांडलगढ़ विधानसभा सीट पर भी कांग्रेस जातीय समीकरण का कार्ड खेल कर भाजपा को चुनौती देने की कोशिश में लगी है। मांडलगढ़ की सीट भाजपा विधायक कीर्ति कुमारी की स्वाइन फ्लू से निधन के बाद खाली हुई है।
उपचुनाव से पहले जीएसटी और नोटबंदी के कारण गिर रही विकास दर और देश की मौजूदा आर्थिक हालत, भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह के बेटे जय शाह की कंम्पनी के कथित घोटाले और किसानों में कर्ज माफी को लेकर फैल रहे असंतोष के कारण भाजपा नेताओं के माथे पर सिकन देखी जा सकती है, वहीं कांग्रेस इन मुद्दों के कारण उत्साह में तो है, लेकिन उसे उप चुनाव में सरकारी मशीनरी के दुरुपयोग का डर अभी से सता रहा है, यही कारण है कि कांग्रेस ने राजस्थान के तीनों उप चुनावों में ईवीएम के साथ वीवीपेट मशीनों के इन्तजाम की मांग चुनाव आयोग से की है।
राजे ने संभाली कमान
उप चुनाव की घोषणा से पहले ही मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने चुनाव की कमान अपने हाथ में ले ली है। उन्होंने अजमेर और अलवर के धुआंधार दौरों के दौरान सोशल इंजीनियरिंग पर जोर देते हुए विभिन्न समुदायों के लोगों से मुलाकात कर बंद कमरे में उनकी समस्याएं सुनी है। अजमेर तो उन्होंने ऐसी बैठकों के दौरान जिले के प्रभारी चिकित्सा मंत्री कालीचरण सर्राफ को भी भीतर नहीं आने दिया और लोगों से खुलकर अपनी बात रखने को कहा। इसी तरह अलवर में भी उन्होंने भाजपा प्रदेश कार्यसमिति की बैठक के बहाने प्रमुख लोगों से मुलाकात कर उनकी नब्ज टटोलने की कोशिश की। बैठक में राजे ने तीनों ही
उप चुनाव में पार्टी की जीत का आत्मविश्वास जताते हुए कहा कि अभी से स्थानीय नेताओं को चुनाव जीतने की तैयारी में जुट जाना चाहिए। चुनावी रणनीति के तहत राजे पहले ही दोनों संसदीय क्षेत्रों के प्रत्येक विधानसभा इलाकों में एक एक विधायक व प्रमुख नेताओं को जिम्मा सौंप चुकी है। अजमेर में तो प्रत्येक विधानसभा क्षेत्र का जिम्मा प्रमुख मंत्रियों तक को दिया गया है।
सहानुभूति लूटने की कोशिश
सोशल इंजीनियरिंग या जातिगत आधार पर चुनाव लड़ने की रणनीति के साथ साथ भाजपा उप चुनाव के लिए सहानुभूति लूटने की कोशिश में भी है। इसके तहत कयास लगाए जा रहे हैं कि अजमेर में निवर्तमान सांसद स्व. सांवरलाल जाट के पुत्र रामस्वरूप और अलवर में महंत चांदनाथ के उत्तराधिकारी महंत बालक नाथ पर दाव खेला जा सकता है। इसी तरह मांडलगढ़ में भी दिवंगत हुई विधायक कीर्तिकुमारी के परिवार की हर्षिता को मैदान में उतारने पर गहन मंथन किया जा रहा है। भाजपा अलवर में यादव मतों की बहुलता के मद्देनजर पूर्व मंत्री जसवंत यादव पर भी दाव खेल सकती है, वहीं अजमेर में दिग्गज नेता व डेयरी के चेयरमैन रामचंद्र चौधरी राजे से मिलकर अपनी दावेदारी जता चुके हैं। फिर भी माना जा रहा है कि भाजपा की कोशिश सहानुभूति के मतों के सहारे नैय्या पार लगाने की होगी।
कांग्रेस उतार सकती है दिग्गजों को
जहां तक कांग्रेस का सवाल है, वह अजमेर व अलवर संसदीय क्षेत्रों में दिग्गजों पर दाव खेलने की तैयारी में है। अजमेर में प्रदेश कांग्रेसाध्यक्ष सचिन पायलट व अलवर में पूर्व केंद्रीय मंत्री भंवर जितेंद्रसिंह को ही मैदान में उतारे जाने की सम्भावना है, लेकिन मांडलगढ़ में कांग्रेस को जातिगत समीकरणों के आधार पर ही भाजपा को घेरना होगा। कांग्रेस के नेता मानते हैं कि मांडलगढ़ में स्थिति अच्छी नहीं है, लेकिन भीलवाड़ा से सांसद रहे कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव सीपी जोशी सरीखा कोई बड़ा नेता ताल ठोके तो भाजपा को चुनौती दी जा सकती है।
जातिगत मतों की गणित
अलवर संसदीय क्षेत्र में सर्वाधिक तीन लाख से ज्यादा मतदाता अनुसूचित जाति-जनजाति के हैं। इनके अलावा ढाई लाख जाट, दो लाख मुस्लिम, राजपूत व गुर्जर और डेढ़ लाख से ज्यादा ब्राह्मण, वैश्य और रावत मतदाता निर्णायक भूमिका निभाते हैं। अलवर में दो लाख से ज्यादा यादव मतदाता हैं तो दो लाख ब्राह्मण,इतने ही मेव व अनुसूचित जाति तथा एक लाख मीणा, 80 हजार माली व 50 हजार राजपूत मतदाता हैं। भाजपा सोशल इंजीनियरिंग के जरिए अपनी स्थित मजबूत करने की कोशिश में है, जबकि कांग्रेस भाजपा के प्रति असंतोष को भुनाने के साथ साथ अपने परम्परागत मतों को वापस हासिल करने की कोशिश कर रही है।
भाजपा की दिक्कत
वैसे तो उप चुनाव में आमतौर पर सत्ताधारी पार्टी को ही ज्यादा फायदा होता है, लेकिन इस बार भाजपा के सामने कई दिक्कतें हैं। जातिगत समीकरणों के अनुसार उसे गैंगस्टर आनन्दपाल सिंह के एनकाउंटर और इसकी सीबीआई जांच करवाने पर अभी तक फैसला नहीं हो पाने से राजपूत मतदाताओं की नाराजगी का सामना करना पड़ सकता है। इसके अलावा किसानों की कर्ज माफ नहीं होने और पर्याप्त बिजली व पानी नहीं मिलने के प्रति नाराजगी भी एक बड़ी चुनौती है। जीएसटी और नोटबंदी का असर भी उसे भयभीत कर रहा है तो कार्यकर्ताओं की सुनवाई नहीं होने के कारण अंदर ही अंदर पनप रहा असंतोष भी भाजपा के लिए चुनौती बन सकता है।
कांग्रेस की परेशानी

हालांकि सियासी हालात कांग्रेस को ज्यादा परेशान नहीं कर रहे, लेकिन उसकी संगठनात्मक स्थिति जरूर एक बड़ी चुनौती है। पहले विधानसभा और फिर आम चुनाव में कांग्रेस की बुरी तरह हार ने कार्यकर्ताओं का मनोबल तोड़ रखा है। हालांकि गुजरात में कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी के दौरों को मिल रहे समर्थन और कांग्रेस के सोशल मीडिया प्रकोष्ठ की बढ़ती आक्रामकता ने कुछ हौंसला बढ़ाया है, लेकिन कार्यकर्ताओं का मनोबल कांग्रेस के लिए बड़ी चुनौती है। कांग्रेस के एक दिग्गज नेता ने कहा कि यदि एकजुट होकर चुनाव लड़े तो परिस्थितयां हमारे पक्ष में बनते देर नहीं लगेगी, लेकिन सवाल यही है कि क्या यह सम्भव हो पाएगा।
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Monday, October 9, 2017

Death or Dignity

सवाल सम्मान के साथ मौत का

-सुरेश व्यास

भारत के उच्चतम न्यायालय ने हाल ही एक याचिका पर केंद्र सरकार से फांसी की सजा का विकल्प ढूंढने का निर्देश दिया है। इसके साथ ही दुनिया भर में मृत्युदंड के बर्बर तरीकों और मृत्यु दंड समाप्त किए जाने की बहस को नई गति मिल गई है। हालांकि भारत में मृत्यु दंड बिरले मामलों (रेयरेस्ट ऑफ द रेयर) में ही दिया जाता है, लेकिन याचिका में उठाया गया यह सवाल कि फांसी लगाकर मृत्यु दंड देना क्या भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन नहीं है, जो देश के प्रत्येक नागरिक को सम्मानपूर्वक जीवन जीने की आजादी प्रदान करता है, नई बहस शुरू कर चुका है।

प्रधान न्यायाधीश की अगुवाई वाली पीठ ने सरकार से हालांकि इस सवाल पर जबाव मांगा है, लेकिन दो सवाल फिर भी कायम है कि मृत्यु दंड के लिए फांसी का विकल्प क्या हो, जिसमें फांसी की सजा वाले कैदी को बिना दर्द के मौत की नींद सुलाया जा सके और दूसरा यह कि क्या पूरी तरह ही समाप्त नहीं कर दिया जाना चाहिए।

सुप्रीम कोर्ट के वकील और याचिकाकर्ता ऋषि मल्होत्रा का कहना है कि संविधान का अनुच्छेद 21 न सिर्फ व्यक्ति को सम्मानपूर्वक जीने का अधिकार प्रदान करता है, बल्कि मृत्यु दंड प्राप्त करने वाले कैदी की सम्मानजनक मौत का प्रावधान भी करता है, ताकि उसकी मृत्यु ज्यादा दर्दनाक न हो। सरकार क्या जवाब देती है और सुप्रीम कोर्ट इस पर क्या व्यवस्था देता है, यह तो भविष्य बताएगा, लेकिन इस याचिका ने यह बहस जरूर छेड़ दी है कि सीआरपीसी की धारा 354 (5) में बदलाव होना चाहिए। इस धारा में मृत्युदंड की सजा पाए व्यक्ति को गर्दन में फंदा लगाकर सांस उखड़ने तक लटकाए जाने का प्रावधान किया गया है।

विधि आयोग हालांकि अपनी 35वीं और अक्टूबर 2013 में दी गई अपनी रिपोर्टों में फांसी की सजा और इसकी बर्बरता पर सवाल उठा चुका है। विधि आयोग की 187वीं रिपोर्ट में तो बाकायदा फांसी की सजा की बजाय लैथल इंजेक्शन के जरिए मृत्युदंड कारित करने की सिफारिश भी की गई है। अब चूंकि सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को फांसी के विकल्प सुझाने का निर्देश दिया है तो उम्मीद की जानी चाहिए की विधि आयोग की रिपोर्ट से भी सरकार धूल तो झाड़ेगी ही।

दर्दनाक है फांसी की सजा
देश में हालांकि फांसी की सजा बहुत ही विरले मामलों में देने का प्रावधान है, लेकिन फांसी पर लटकाए जाने की प्रक्रिया बड़ी दर्दनाक है। इसका असर न सिर्फ फांस पर चढ़ने वाले व्यक्ति पर नजर आता है, बल्कि सजा को लागू करने वाले अफसरों पर इसका मानसिक प्रभाव तो पड़ता ही है। मसलन जिसे फांसी पर चढ़ाया जाना है, पुलिस व जेल के अधिकारी इसकी तैयारी शुरू करते ही कैदी मानसिक दबाव में आ जाता है। उसका बाकायदा लम्बाई चौड़ाई का नाप लिया जाता है। वजन किया जाता है। उसके हिसाब से रस्सी की व्यवस्था होती है। फिर फांसी के निर्धारित समय से कई घंटे पहले तैयारी हो जाती है। आखिर में जब व्यक्ति को फंदे पर लटका दिया जाता है तो जब तक उसकी मृत्यु नहीं हो जाती वह फंदे पर लटका रहता है। उसकी आंखें तक बाहर आ जाती है। यह प्रक्रिया इतनी दर्दनाक है कि कई बार तो इसे लागू करवाने वाले अफसर कई दिनों तक सदमे से बाहर नहीं आ पाते। मुंम्बई पर आतंकी हमलों के गुनहगार अजमल कसाब को फांसी पर चढ़वाने वाली महिला आईपीएस अफसर ने सेवानिवृत्ति के बाद अपने इंटरव्यू में इस दर्द को बयां किया है।

उठती रही है फांसी खत्म करने की मांग
दुनिया भर में मानवाधिकार संगठन फांसी की सजा कॉ ही खत्म करने की मांग लम्बे अरसे से कर रहे हैं। इसका नतीजा है कि विश्व के लगभग 140 देशों में तो फांसी की सजा खत्म ही की जा चुकी है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी अपनी रिपोर्ट में मृत्यु दंड की सजा को खत्म करने का सुझाव विभिन्न रिपोर्टों में दिया है। कई देश तो हालांकि मृत्युदंड के मानवीय तरीकों पर काम भी कर रहे हैं, लेकिन दुनिया जब अरब देशों में आज भी मृत्युदंड के बर्बर तरीकों को देखती है तो सहम उठती है।

व्यावहारिक रहा है अदालतों का नजरिया
भारत की न्याय व्यवस्था ने समय समय पर संवैधानिक प्रावधानों की व्याख्या करते हुए कई अहम फैसले किए हैं। इनमें सबसे बड़ा फैसला भारतीय दंड संहिता की धारा 303 को खत्म करने का है। मिट्ठू बनाम भारत संघ के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने इस धारा को खत्म किया था। इसमें प्रावधान था कि यदि कोई उम्रकैद की सजा काट रहा है और इस दौरान उसने कोई जंघन्य अपराध कर दिया तो उसे फांसी की सजा ही होगी। सुप्रीम कोर्ट ने इस धारा को ही असंवैधानिक करार दे दिया। इसी तरह मृत्युदंड के मामले में भी सुप्रीम कोर्ट का नजरिया मानवीय ही रहा है। बच्चन सिंह बनाम पंजाब के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि फांसी की सजा बिरले (रेयरेस्ट ऑफ द रेयर) मामले में ही दी जानी चाहिए।

भारत में फांसी कम ही
सुप्रीम कोर्ट के फांसी की सजा बिरले मामलों में ही देने के निर्देशों का ही असर है कि देश में पिछले तीन दशकों में बहुत कम लोगों को फांसी की सजा सुनाई गई है और फांसी की सजा लागू करने के भी गिनती के मामले ही सामने आए हैं। देश में सम्भवतः आखिरी बार फांसी की सजा जुलाई 2015 मुंबई बम धमाकों के आरोपी याकूब मेनन को हुई थी। इससे पहले फरवरी 2013 में अफजल गुरू व नवम्बर 2012 में मुंबई में आतंकी हमले के गुनहगार अजमल कसाब को फांसी पर लटाया गया था। कसाब से पहले 2004 में धनंजय चटर्जी को फांसी पर लटकाया गया था। जहां तक फांसी से मृत्युदंड का सवाल है दुनिया में आज भी इरान और अन्य अरब देशों में यह प्रथा ज्यादा प्रचलन में है। इरान में तो एक साल में औसतन तीन सौ से ज्यादा लोगों को फांसी पर चढ़ा दिया जाता है।

इंजेक्शन है बेहकर विकल्प
अब सवाल है कि फांसी तो मृत्यु दंड का बेहतर विकल्प क्या हो। इसके लिए विधि आयोग ने अपनी रिपोर्ट में जिस लैथल इंजेक्शन का सुझाव दिया है, वह तरीका दुनिया के कई देशों में अपनाया भी जा रहा है। इसके तहत व्यक्ति को बेहोश करने वाली दवा की हाई डोड इंजेक्शन के जरिए लगाई जाती है और आदमी धीरे धीरे मौत के आदेश में समा जाता है। अमरीका के ऑकहामा स्टेट में 1977 में सबसे पहले मृत्यु दंड का यह तरीका अपनाया गया था, जिसे कई अन्य़ देशों ने भी बाद में मान्यता दी है।


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Sunday, October 8, 2017

...तो क्या वाकई वायुसेना तैयार है दो मोर्चों पर लड़ने के लिए


-सुरेश व्यास

दुनिया की पांच सर्वश्रेष्ठ वायुसेनाओं में शुमार भारतीय वायुसेना 8 अक्टूबर 2017 को 85 साल
की हो गई। पहले रॉयल एयरफोर्स और अब इंडियन एयरफोर्स। मौका पड़ने पर हर कसौटी
पर खरी उतरने वाली वायुसेना के बुलंद हौंसलों पर कोई संदेह नहीं है और न ही वायुसैनिकों
की कर्तव्य परायणता पर कोई अंगुली उठा सकता है। इस बार वायुसेना दिवस के मौके
सालाना प्रेस कॉन्फ्रेंस और बाद में हिंडन में आयोजित वायुसेना दिवस समारोह के दौरान
वायुसेनाध्यक्ष एयर चीफ मार्शल बीएस धनोआ के दो बयान, जिनमें उन्होंने वायुसेना की
क्षमताओं को उजागर किया है, चर्चा में बने हुए हैं। एयर मार्शल धनोआ का पहला बयान,
जिसमें उन्होंने कहा कि भारतीय वायुसेना दो मोर्चों पर लड़ने में पूरी तरह सक्षम है। साथ ही
आदेश मिला तो पाकिस्तान के परमाणु ठिकानों को भी नैस्तनाबूद करने की पूरी तैयारी है।
उनका दूसरा बयान हिंडन में आया, जिसमें उन्होंने कहा कि वायुसेना किसी शॉर्ट नोटिस पर
भी लड़ने को तैयार है।
वायुसेनाध्यक्ष एयर मार्शल धनोआ के ये बयान निश्चित रूप से नभ प्रहरियों के उच्च मनोबल और सामरिक ताकत को इंगित करते हैं, लेकिन जिस तरह वायुसेना के पास लगातार लड़ाकू
विमानों का टोटा होता जा रहा है, उसके मद्देनजर यह सवाल भी उठ रहा है कि क्या वाकई
वायुसेना इस हालात में भी दो मोर्चों (चीन और पाकिस्तान) पर लड़ने की स्थिति में है? वह भी
उस स्थिति में जब 85 साल पुरानी वायुसेना के पास आज भी स्वदेशी लड़ाकू विमानों की एक
भी स्क्वाड्रन खड़ी नहीं हो पाई है। वायुसेना के सामने सत्तर के दशक से मजबूती का पर्याय बने रहे मिग विमानों की विदाई और उनकी जगह नए विमान आने में हो रही देरी भी एक बड़ी चुनौती है।

कम हो रही हैं स्क्वाड्रन की संख्या
वायुसेना के पास आज की तारीख में लड़ाकू विमानों की 42 स्क्वाड्रन (प्रत्येक स्क्वाड्रन में 16
से 18 विमान) होनी चाहिए, लेकिन वायुसेना अभी मात्र 33 स्क्वाड्रन से ही काम चला रही है।
यह पिछले एक दशक में वायुसेना की लड़ाकू विमान स्क्वाड्रन का सबसे न्यूनतम स्तर है।
पिछले दशक तक वायुसेना के पास 39.5 स्क्वाड्रन हुआ करती थी, लेकिन विमानों की
दुर्घटनाओं व पुराने विमानों की विदाई के चलते स्क्वाड्रन की संख्या लगातार कम हो रही है।

अगले दो-तीन साल चुनौतीपूर्ण
रक्षा विशेषज्ञों की मानें तो वायुसेना के सामरिक इतिहास में सत्तर के दशक से अहम भूमिका
अदा करते आ रहे रूस निर्मित लड़ाकू विमान मिग-21 की करीब 11 स्क्वाड्रन आने वाले दो
तीन साल में धीरे धीरे विदा होती जाएगी। यानी करीब 220 विमान वायुसेना के बेड़े से कम
होने वाले हैं, लेकिन इनकी भरपाई का काम बहुत ही धीमी गति से चल रहा है। ऐसे में जब
मिग-21 विमान फेज आउट हो जाएंगे तो वायुसेना की चुनौती और बढ़ती चली जाएगी।

जगुआर व मिग-29 भी होंगे विदा
वायुसेना से अगले पांच वर्ष के दौरान डबल इंजन वाले जगुआर और मिग-29 विमान भी विदा
होने हैं। इनकी लगभग 8 स्क्वाड्रन विदा हो जाएगी। इनकी भरपाई पर भी खरीद नीति में
निरंतर किए जा रहे बदलावों और मैक इन इंडिया कार्यक्रम के तहत अन्तरराष्ट्रीय विमान
निर्माता कम्पनियों से समझौते की धीमी गति चिंता का सबब बनी हुई है।

तेजस का इंतजार
वायुसेना के लिए स्वदेश में विकसित और हिन्दुस्तान एयरोनोटिकल्स लिमिटेड (एचएएल) में
बन रहे हल्के लड़ाकू विमान (एलसीए) तेजस का भी इंतजार ही बना हुआ है। एचएएल ने वर्ष
2005 में वायुसेना से वादा किया था कि वह वर्ष 2018 तक एलसीए तेजस मार्क-1 के 40
विमान उपलब्ध करवा देगी, लेकिन उत्पादन की गति काफी धीमी है। ऐसे में संशय बना हुआ
है कि क्या वाकई निर्धारित अवधि तक 40 तेजस विमान वायुसेना के बेड़े में शामिल हो
पाएंगे। यहां उल्लेखनीय है कि वायुसेना ने एचएएल से 123 तेजस विमान खरीदने का करार
किया है। इसकी शुरुआती स्क्वाड्रन बेंगलुरू में स्थापित करने की प्रक्रिया भी चल रही है।

लम्बा हुआ राफैल का इंतजार
वायुसेना की लम्बे समय से चली आ रही मल्टीरोल मीडियम रैंज कॉम्बेट एयरक्राफ्ट
(एमएमआरसीए) की मांग हालांकि पिछली यूपीए सरकार के वक्त में सिरे चढ़ने लगी थी,
लेकिन देश में सत्ता परिवर्तन के साथ इसकी गति पर भी जैसे ब्रेक लग गए। प्रधानमंत्री नरेंद्र
मोदी के नेतृत्व वाली नई सरकार ने एमएमआरसीए के तहत फ्रांस से 126 राफैल लड़ाकू
विमान खरीदने के सौदे को बदल कर 36 विमान खरीदने का नए सिरे से करार किया।
हालांकि फ्रांस की डेसाल्ट कम्पनी में इसी महीने भारतीय वायुसेना के लिए राफैल विमान
बनाने के लिए स्टील शीट कटिंग की रस्म अदायगी हो चुकी है यानी निर्माण शुरू हो चुका है।
फिर भी करार के अनुसार राफैल की पहली खेप वर्ष 2020 तक आने के बारे में अभी कुछ
नहीं कहा जा सकता।

मैक इन इंडिया का फंडा
अब सवाल यह है कि वायुसेना के लिए जरूर लड़ाकू विमानों की व्यवस्था कैसे होगी? मोदी
सरकार ने मैक इन इंडिया प्रोग्राम के तहत दुनिया की दो बड़ी कम्पनियों के साथ करार
करने की दिशा में कदम बढ़ाया है ताकि इन विमानों का निर्माण भारत में ही शुरू किया जा
सके। इसके लिए रक्षा मंत्रालय एफ-16 फाल्कन लड़ाकू विमान बनाने वाली अमरीकी
कम्पनी लॉकहिड मार्टिन व ग्रीपन लड़ाकू विमान बनाने वाली स्वीडन की कम्पनी साब को
रिक्वेस्ट फॉर इन्फोर्मेशन (आरएफआई) भेज रहा है। वायुसेनाध्यक्ष एयर मार्शल धनोआ ने
हिंडन में कहा कि इसी महीने आरएफआई दोनों कंपनियों को भेज दी जाएगी। इसकी
सहमति आते ही दोनों कंपनियां भारत में निर्माण करने के लिए स्थानीय कंपनियों से करार
करेगी। लॉकहिड मार्टिन ने टाटा और साब ने अडानी समूह के साथ मिलकर लड़ाकू विमान
निर्माण के कारखाने लगाने पर सहमति जता दी है। लेकिन कब सहमति आएगी, कब करार
होंगे और कब काम शुरू होगा, इस बारे में स्थिति अभी तक साफ नहीं है।

सारा भार सुखोई पर
रूस में बने मल्टी रोल लड़ाकू विमान सुखोई-30 एमकेआई अभी भारतीय वायुसेना की रीढ़
की हड्डी हैं। लगभग 250 सुखोई विमानों के बेड़े ने वायुसेना को मजबूती दी है, इसमें कोई
संशय नहीं है। पश्चिम की रेगिस्तानी और मैदानी सीमा से लेकर उत्तर-पूर्व की पहाड़ी सीमाओं
पर सुखोई की मौजूदगी देश के लोगों को आकाशीय सुरक्षा के मामले में आशान्वित करने के
लिए काफी है, लेकिन जब तक नए विमान नहीं आएंगे, लगता है वायुसेना को मजबूत हौंसले
के दम पर ही सामरिक चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा।

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