Friday, December 29, 2017

जब एक ‘बहादुर’ पड़ा था दुश्मन के लाव-लश्कर पर भारी

सुरेश व्यास
एक बहादुर की गर्जना विदा होते साल 2017 के साथ ही शान के साथ शांत हो गई। ये वो बहादुर था, जो ऊंची पहाड़ियों पर बैठे दुश्मन और उसके लाव-लश्कर पर अकेला ही भारी पड़ा था। ‘बहादुर’ की गर्जना भर से दुश्मन को दुम दबाकर भागना पड़ा।

जी हां, हम बात कर रहे हैं भारतीय वायुसेना के लड़ाकू विमान मिग-27 की, जिसकी अचूक मारक क्षमता ने भारत में उसे ‘बहादुर’ नाम से ख्याति दिलाई और यही बहादुर नाटो सेनाओं के लिए ‘फ्लोगर’ यानी सफाया करने वाला अथवा कोड़े मारने वाला कहलाया। 

भारतीय वायुसेना में रूस निर्मित यह लड़ाकू विमान 1980 के दशक में शामिल हुआ था, लेकिन इसका असली इस्तेमाल 1999 में हुए भारत-पाकिस्तान के करगिल युद्ध में सामने आया। इस युद्ध में वायुसेना के ‘ऑपरेशन सफेद सागर’ में मिग-27 ने दुर्गम पहाड़ियों के बीच उड़ान भरकर दुश्मन के ठिकानों, सामग्री डिपो व सप्लाई मार्ग को नैस्तनाबूद कर दिया।
यूं ही नहीं कहलाए फ्लोगर
मिग यानी मिकोयान-गुरेविच विमान भारतीय वायुसेना की अग्रिम पंक्ति के लड़ाकू विमान रहे हैं। हालांकि दुर्घटनाओं के कारण इन पर सवाल भी उठे और कई बार मिग विमानों को उड़न ताबूत तक कहा गया, लेकिन ये वास्तव में तकनीकी रूप से सक्षम नहीं होते तो न इन्हें नाटो सेनाएं फ्लोगर (सफाया करने वाला) मानती और न ही ये वायुसेना में बहादुर के नाम से प्रतिष्ठापित होते।
मजबूत इंजन, अचूक निशाना
शक्तिशाली इंजन ने मिग-27 को एक खास तरह का लड़ाकू विमान बनाया। इन विमानों में लगे ऑटोमेटिक फ्लाइंग कंट्रोल सिस्टम, अटैक इंडीकेटर्स और इन-बिल्ट लेजर गाइडेड सिस्टम के कारण बहादुर को दुनिया का सशक्त एयर टू ग्राउंड अटैक फाइटर जेट माना गया। देश में विभिन्न मौकों पर इन विमानों ने अपनी क्षमता को साबित भी किया। करगिल युद्ध इसका प्रमुख उदाहरण माना जा सकता है।
हासिमारा में आखिरी उड़ान
वायुसेना की लगभग तीन दशक की सेवा के बाद मिग-27 उम्रदराज होकर विदा हो रहे हैं। पश्चिम बंगाल के हासिमोरा एयरबेस से मिग-27 ने आखिरी उड़ान भरी। 

मिग-21 विमानों को चरणबद्ध तरीके से वायुसेना के लड़ाकू विमान बेड़े से विदा किया जा रहा है। अब भी देश के विभिन्न अग्रिम मोर्चों पर अपग्रेडेड मिग-27 गर्जना कर रहे हैं और अगले डेढ़ दो साल में पूरी तरह वायुसेना से विदा हो जाएंगे।
अब भी चालीस
दो साल पहले तक वायुसेना के बेड़े में अपग्रेडेड समेत 87 मिग-27 विमान थे। अवधि पूरी होने के कारण इन्हें फेज आउट किए जाने के बाद अब भी लगभग 40 मिग-27 वायुसेना के पास हैं। इन्हें धीरे धीरे सेवा से हटा लिया जाएगा, लेकिन देश के प्रमुख शहरों में इनकी डम्मी मिग-27 की गौरव गाथा को जीवंत बनाए रखेगी।

Wednesday, December 27, 2017

गुजरात के बाद गलफांस बने राजस्थान के उप चुनाव

भाजपा मानकर चल रही थी कि गुजरात में उसे अपार बहुमत मिल जाएगा और वह उसका फायदा राजस्थान के उपचुनाव में भी लेगी। लेकिन अब उलटा हो चुका है।


-सुरेश व्यास
जयपुर. गुजरात चुनावों के नतीजों के बाद राजस्थान में होने वाले दो संसदीय व एक विधानसभा क्षेत्र के उप चुनाव सत्ताधारी भाजपा के लिए गलफांस बन गए हैं। भाजपा को सरकार के प्रति असंतोष ही नहीं,बल्कि जातिगत समीकरणों ने भी उलझन में डाल रखा है। कांग्रेस प्रत्याशी चयन के मामले में भाजपा को मानसिक दबाव में पहले ही ला चुकी है। वहीं खुद, भाजपा को स्थानीय स्तर पर नेताओं की खींचतान ने परेशान कर रखा है।
राजस्थान में अलवर व अजमेर संसदीय क्षेत्रों में सांसद महंत चांदनाथ और सांवरलाल जाट तथा भीलवाड़ा जिले की मांडलगढ़ विधानसभा सीट पर भाजपा विधायक कीर्तिकुमारी के निधन के कारण उपचुनाव होने हैं। हालांकि चुनाव आयोग ने इन उपचुनावों की तारीख अभी घोषित नहीं की है, लेकिन आयोग के सामने फरवरी तक इन तीनों सीटों पर चुनाव करवाने की संवैधानिक मजबूरी है। ऐसे में माना जा रहा है कि आयोग कभी भी इन तीनों क्षेत्रों में उप चुनाव की घोषणा कर सकता है।
चुनाव आयोग हालांकि अन्य राज्यों में हुए उपचुनावों के साथ ही राजस्थान के तीनों क्षेत्रों की तारीख भी घोषित कर सकता था,  लेकिन राजनीतिक पंडितों का कहना है कि इसमें भी गुजरात विधानसभा चुनाव की तारीखों में देरी की तरह ही कुछ हुआ है। भाजपा मानकर चल रही थी कि गुजरात में उसे अपार बहुमत मिल जाएगा और वह उसका फायदा राजस्थान के उपचुनाव में भी लेगी। लेकिन अब उलटा हो चुका है।

अलवर का अड़ंगा
बदले हुए सियासी समीकरणों में भाजपा के लिए तारीखों की घोषणा से पहले प्रत्याशी चयन भी एक बड़ी मुसीबत है। अलवर में कांग्रेस पहले ही भाजपा के नहले पर दहला मार गई। कांग्रेस ने डॉ. कर्णसिंह यादव को अपना प्रत्याशी घोषित कर दिया। उन्हें पूर्व केंद्रीय मंत्री और कांग्रेसाध्यक्ष राहुल गांधी के नजदीकी जाने वाले पूर्व राजपरिवार के सदस्य भंवर जितेंद्र सिंह का समर्थन भी है। जबकि भाजपा किसी यादव प्रत्याशी की खोज में ही रह गई। भाजपा हालांकि श्रम मंत्री जसवंत यादव को सामने उतार सकती है, लेकिन उसके सामने वोटों के बंटवारे के खतरे के साथ साथ सांसद रहे स्व. चांदनाथ के समर्थकों की नाराजगी का भय भी है। भाजपा अलवर जिले में पहले से अल्पसंख्यकों के निशाने पर है। ऐसे में यादव व अल्पसंख्यक मतों की नाराजगी ने उसे उलझा रखा है। रही सही कसर, उसके बड़बोले विधायक ज्ञानदेव आहूजा के नित नए सामने आ रहे विवादित बयान पूरी कर रहे हैं।
अजमेर में अजीब दिक्कत
इसी तरह अजमेर संसदीय क्षेत्र में भाजपा असमंजस में है। उसे दिक्कत है कि पूर्व सांसद स्व. सांवरलाल जाट के परिवार को टिकट दें तो परेशानी और न दें तो परेशानी। भाजपा जाट मतों के सहारे इस सीट को जीतना चाहती है, लेकिन स्व. सांवरलाल जाट के परिवार को टिकट देने से भी उसके सामने जाट वोट बंटने का खतरा है और न देने पर भी यह खतरा खत्म नहीं होता। कांग्रेस ब्राह्मण के साथ जाट प्रत्याशी पर भी दाव खेलने की फिराक में है, लेकिन वह पहले भाजपा का इंतजार कर रही है। कांग्रेस इस भरोसे भी है कि किसान महापंचायत ने अजमेर में अपना निर्दलीय प्रत्याशी उतारने की घोषणा कर दी है तो उसे इसका फायदा भाजपा के वोटों में बंटवारे से होगा। ऐसे में वह तो निश्चिंत है, लेकिन भाजपा के माथे से चिंता की सलवटें दूर होने का नाम नहीं ले रही।
मांडलगढ़ की मझधार
रहा सवाल भीलवाड़ा की मांडलगढ़ विधानसभा सीट का तो यहां भी भाजपा ही ज्यादा परेशानी में है। भाजपा को इस सीट पर अपना कब्जा बरकरार रखने की चिंता है। कांग्रेस के पास तो यहां खोने के लिए कुछ है नहीं, लेकिन क्षेत्र के जातिगत समीकरणों ने कांग्रेस नेताओं की बांछें खिला रखी है। इस क्षेत्र से राजपूत मतदाता हालांकि काफी प्रभाव रखते हैं, लेकिन ब्राह्मण मतदाता भी निर्णायक भूमिका में रहते हैं। गैंगस्टर आनंदपाल एनकाउंटर मामले के बाद से राजपूत समाज में भाजपा के प्रति नाराजगी ने भाजपा को पहली ही चिंता में डाल रखा है। ऐसे में कांग्रेस की कोशिश इस नाराजगी को भुनाने के साथ ब्राह्मण पर दाव खेलने की है। क्षेत्र में गुर्जर मतदाता भी बड़ी संख्या में है। वे आरक्षण के मुद्दे पर अनमने हैं। इसका खामियाजा भी भाजपा को भुगतना पड़ सकता है। कांग्रेस ने इसके लिए पहले ही अपने विधायक धीरज गुर्जर को धंधे लगा रखा है। ब्राह्मण मतदाताओं के लिए कांग्रेस ने अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के महासचिव डॉ. सीपी जोशी को मोर्चा सम्भलाया है।


चिंता विधानसभा चुनाव की

राजस्थान के तीनों उप चुनाव न सिर्फ संसद, बल्कि विधानसभा के लिए भी अहम है। अभी राजस्थान की सभी 25 सीटों पर भाजपा का कब्जा है। भाजपा इसे बरकरार रखना चाहती है। इसका असर प्रदेश में आगामी विधानसभा चुनावों पर भी पड़ेगा। प्रदेश की भाजपा सरकार के लिए यह चुनावी साल है। दिसम्बर 2018 में यहां विधानसभा चुनाव होने हैं, लेकिन भाजपा अभी से राज्य सरकार के प्रति पनप रहे  असंतोष से चिंता में डूबी है। फिर जातिगत समीकरण भी उसके पक्ष में नजर नहीं आ रहे। बावजूद इसके भाजपा उपचुनावों के जरिए अपना अपर हैंड रखने की फिराक में है, ताकि विधानसभा चुनावों के दौरान मानसिक तनाव से मुक्त रहे। भाजपा की परेशानी है कि मोदी मैजिक उतर रहा है। प्रदेश में हुए स्थानीय निकाय व पंचायत चुनावों में कांग्रेस का मत प्रतिशत बढ़ा है। हाल ही निकाय  व पंचायतों के उपचुनाव में भी कांग्रेस ने भाजपा की जमीन खिसकाई है।

सर्जिकल स्ट्राइक नहीं, अब सलेक्टिव टार्गेटिंग

काफी कारगर है भारतीय थल सेना का नया फंडा

-सुरेश व्यास
भारतीय सेना ने पाकिस्तान को उसके घर में घुसकर पीट दिया। रावलकोट इलाके में पाकिस्तानी सेना की एक अस्थाई चौकी ध्वस्त हो गई। तीन पाकिस्तानी सैनिक मारे गए। एक अब भी आखिरी सांसे गिन रहा है। भारतीय सेना के पांच कमांडो ढाई सौ से तीन सौ मीटर तक पाकिस्तानी इलाके में घुसे। कमांडो कार्रवाई की और दस मिनट में खेल खत्म। 

यह सब 24 दिसम्बर को हुआ। पाकिस्तानी सेना ने भी माना कि भारतीय फौज घर में घुस कर मार गई। पाकिस्तान की की प्रचार इकाई इंटर सर्विस पब्लिक रिलेशन (आईएसपीआर) ने बाकायदा ट्वीट के जरिए इसकी जानकारी दी। (हालांकि अब पाकिस्तान इससे मुकर रहा है और कहा जा रहा है कि उसके सैनिक लैंडमाइन ब्लास्ट यानी बारूदी सुरंग फटने से मारे गए।) घर में घुसकर पाकिस्तानी फौज को मारने की इस घातक कमांडो कार्रवाई को लोग भी सर्जिकल स्ट्राइक मानते रहे। लेकिन, यह सर्जिकल स्ट्राइक नहीं सलेक्टिव टारगेटिंग थी। सलेक्टिव टारगेटिंग यानी फौजी भाषा की नई टर्म। 

टिट फॉर टेट
दरअसल, सलेक्टिव टारगेटिंग भारतीय सेना का 'टिट फॉर टेट' (जैसे को तैसा) एक्शन था। पाकिस्तानी सेना की बॉर्डर एक्शन टीम (बेट) ने 23 दिसम्बर को कश्मीर के राजौरी सेक्टर में घात लगाकर हमला किया। एक मेजर समेत चार भारतीय शहीद हुए। भारतीय सेना ने सलेक्टिव टारगेटिंग की और पाकिस्तान से हाथों हाथ बदला ले लिया। 


घातक कार्रवाई
भारतीय सेना की एक यूनिट के घातक दस्ते ने यह कार्रवाई की। हर सैन्य यूनिट में ऐसे घातक दस्ते होते हैं। इसके प्रशिक्षित कमाण्डो तुरंत कार्रवाई करते हैं। फिर लौट आते हैं। इस तरह के एक्शन का फैसला भी स्थानीय स्तर भी होता है। पाकिस्तान में ढाई सौ-तीन सौ मीटर अंदर जाकर मार करने का सलेक्टिव टारगेटिंग एक्शन भी इसी का नतीजा था। सेना की 25वीं डिविजन के स्तर पर फैसला हुआ और कार्रवाई अंजाम दे दी गई। डिविजनल मुख्यालय के निर्देश पर घातक कमांडों ने पाकिस्तान सेना की 2-पीओके ब्रिगेड की 59वीं बलूच यूनिट के सैनिकों को मार गिराया। चौकी ध्वस्त कर डाली।

बहुत कारगर तरीका
रक्षा विशेषज्ञों की राय में पाकिस्तान की हरकतों का जवाब देने के लिए सलेक्टिव टारगेटिंग एक कारगर तरीका है। सर्जिकल स्ट्राइक जैसे कदम के लिए सेना मुख्यालय की अनुमति लेनी पड़ती है। इसमें स्थानीय स्तर पर ही फैसला हो जाता है। सलेक्टिव टारगेटिंग के ताजा मामले से पाकिस्तान को सबक लेना चाहिए। भारतीय फौज ने पिछले कुछ समय से 'टिट फॉर टेट' की रणनीति अपना रखी है। इसके अच्छे नतीजे भी सामने आए हैं। आज तक भारत ने पाकिस्तानी सेना की बेट का बहुत कम जवाब दिया है। लेकिन टिट फॉर टेट के लिए सलेक्टिव टार्गेटिंग की धार का लगातार इस्तेमाल किया जाना चाहिए।

सकते में है पाकिस्तान
भारतीय सेना के सलेक्टिव टार्गेट कार्रवाई से पाकिस्तान किस कदर सकते में है, इसका अंदाजा उसके रोजाना बदल रहे बयानों से लगाया जा सकता है। इतना ही नहीं,पाकिस्तान ने सकते में आकर अपने फौजियों की मौत का मुद्दा भारत के साथ हर सप्ताह मंगलवार को होने वाली डीजीएमओ यानी डायरेक्टर जनरल ऑफ मिलिट्री ऑपरेशन्स की बैठक में भी नहीं उठाया।


नापाक इरादों पर चोट
पाकिस्तान की सेना ने आतंक को बढ़ावे के लिए जम्मू-कश्मीर में ही सबसे ज्यादा सक्रियता दिखाई है। आज भी पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर (पीओके) में आतंककारियों के प्रशिक्षण शिविर चल रहे हैं। पाकिस्तान की सेना आतंकियों की घुसपैठ करवाने के लिए कवर फायर करती है। हालांकि कश्मीर में भारतीय सुरक्षा बलों की सख्ती के चलते आतंकियों की कमर टूटी है। अब तक दो सौ से ज्यादा आतंकी इस साल भारतीय सुरक्षा बलों ने मार गिराए हैं, लेकिन पाकिस्तान है कि मानता ही नहीं। इसका सबसे बड़ा सबूत इस साल पाकिस्तान की ओर से जम्मू-कश्मीर में नियंत्रण रेखा के पास लगातार तोड़े जा रहे संघर्ष विराम की घटनाओं में आई तेजी है। 

रिकार्ड संघर्ष विराम टूटने का
अकेले वर्ष 2017 में संघर्ष विराम तोड़ने की घटनाओं में 230 फीसदी की बढ़ोतरी दर्ज की गई है। पिछले साल जहां संघर्ष विराम तोड़ने की 228 घटनाएं हुई थी, वहीं इस साल यह आंकड़ा बढ़कर 800 के पार जा चुका है। इन हालात में पाकिस्तान के लिए भारतीय सेना की नई टर्म सिलेक्टिव टारगेटिंग एक अलार्म है। पाकिस्तान को सावधान हो जाना चाहिए।


Monday, December 25, 2017

रिश्तों के बीच में शीशे की दीवार!


मानवता नहीं, पाकिस्तान की नौटंकी है ये

-सुरेश व्यास

 जासूस बताकर भारतीय नागरिक कुलभूषण जाधव को फांसी के फंदे के मुहाने तक पहुंचाने वाले पाकिस्तान का असली चेहरा एक बार फिर बेनकाब हो गया है। जाधव की मां अवंति व पत्नी चेतनकुल की जिस तरह मुलाकात करवाई गई, उसे देखकर कोई नहीं कह सकता कि पाकिस्तान ने इस मुलाकात के बहाने मानवीयता का मुजाहिरा किया है। जिस तरह संगीनों के साए में जाधव की मां व पत्नी को पाकिस्तान के विदेश मंत्रालय की बिल्डिंग तक लाया गया और जिस तरह 22 महीने से पाकिस्तान की जेलों में बंद जाधव को अपनों के सामने किया गया, वह पाकिस्तान की नौटंकी से बढ़कर कुछ नहीं था। पाकिस्तान भले ही इस मुलाकात के पीछे मानवीयता की दुहाई देता रहे, लेकिन इससे बढ़कर कोई अमानवीय तस्वीर हो नहीं सकती कि मां अपने लाल के सिर पर हाथ फेरने से भी महरूम रह जाए और पत्नी मौत के मुहाने पर खड़े अपने अपने पति से नजरें दो चार न कर सके।

जाधव की मां व पत्नी की मुलाकात शीशे की दीवार बीच में रखकर करवाई गई। पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी के अधिकारी शीशे के उस पार थे, लेकिन भारतीय राजनयिक को इस मुलाकात से इतना दूर रखा गया कि वह इनकी बात तक नहीं सुन सका। शीशे की दीवार के पीछे बैठे जाधव ने अपनी मां और पत्नी से जरिए टेलीफोन बात की। हां, वे एक दूसरे को देख जरूर सकते थे, लेकिन छू नहीं सकते।







पाकिस्तान विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने इस मुलाकात के बाद बड़ी बड़ी डींगें हांकी। कहा कि मुलाकात के लिए आधे घंटे का वक्त ही निर्धारित था, लेकिन जाधव की मां व पत्नी की गुजारिश पर दस मिनत की अवधि बढ़ाई गई। पाकिस्तान ने यह सब मानवीयता के नाते किया। शीशे की दीवार के बारे में उनका कहना था कि सुरक्षा की दृष्टि से ऐसा करना जरूरी था। समझ में नहीं आता कि एक मां व अपनी पत्नी से किसी ‘मुजरिम’ को क्या खतरा हो सकता है कि उन्हें आमने-सामने मुलाकात करवा पाने में नाकाम पाकिस्तान बेशर्मी ने अपनी मानवीय सोच की डींगें हांक रहा है।
 सवाल यह है कि आखिर पाकिस्तान को इस मुलाकात के लिए हामी किस मजबूरी में भरनी पड़ी? क्यों उसे जाधव की मां व पत्नी को वीजा देना पड़ा? काउंसलर एक्सेस का वादा करके भी पाकिस्तान ऐनवक्त पर पीछे क्यों हट गया? इन सवालों के पीछे न सिर्फ पाकिस्तान पर जाधव मामले को लेकर अन्तरराष्ट्रीय दबाव है, बल्कि वह मामले की सुनवाई कर रहे अन्तराष्ट्रीय अदालत- इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ जस्टिस के सामने यह साबित करने की कोशिश करना चाह रहा है कि वह वैश्विक नियमों के पालन के लिए प्रतिबद्ध है। दरअसल, पाकिस्तान के हुक्मरान अच्छी तरह जानते हैं कि जाधव के परिवार और भारतीय राजनयिकों से मुलाकात न करवाना वियना संधि का उल्लंघन है। वियना संधि के मुताबिक पाकिस्तान जाधव को काउंसलर एक्सेस देने के लिए बाध्य है, लेकिन उसने बहुत ही होशियारी के साथ इससे बचने की कोशिश की है।




           पाकिस्तान मामलों के जानकार कहते हैं कि पाकिस्तान ने एक तीर से दो शिकार करने की कोशिश की है। एक तो उसने दुनिया को यह बताने की कोशिश की है कि वह एक जिम्मेदार राष्ट्र है तो अन्तरराष्ट्रीय संधियों के तहत मानवाधिकारों का संरक्षण करने के लिए प्रतिबद्ध है, दूसरा उसने आईसीजे के सामने अपना पक्ष मजबूत करने की नाकाम कोशिश की है। वास्तव में पाकिस्तान मानवीय आधार पर इस मुलाकात का पक्षधर था तो पत्नी व मां तथा जाधव के बीच शीशे की दीवार न होती।






पाकिस्तान मामलों के एक जानकार ने कहा कि पाकिस्तान से इस मुलाकात के बहाने भारत के साथ सम्बन्ध सुधारने का एक बेहतरीन मौका खो दिया है। पाकिस्तान में जिस तरह के राजनीतिक हालात बन रहे हैं और पाकिस्तानी सेना निर्वाचित सरकार पर लगातार दबाव बनाए हुए हैं, उस स्थित में पाकिस्तान पूरा नहीं थोड़ा सा ही मानवीय नजरिया रखता तो रिश्तों में कुछ मिठास घोलने की दिशा में बढ़ा जा सकता था, लेकिन आज की मुलाकात के बाद भारतीय जनमानस में पाकिस्तान के प्रति कटुता और बढ़ेगी ही।

कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि जाधव मामले में पाकिस्तान ने मां-पत्नी से मुलाकात के बारे में महज रस्म अदायगी की है। न तो इस मुलाकात में पाकिस्तान का मानवीय चेहरा सामने आ सका और न ही भारत के साथ सम्बन्ध सुधारने की उसकी मंशा।






























#कुलभूषण #जाधव#Pakistan#

Friday, December 22, 2017

अब सेनाध्यक्ष भी बोलने लगे कूटनीति की भाषा!


-सुरेश व्यास
जयपुर। भारतीय थलसेना के मुखिया जनरल बिपिन रावत ने पाकिस्तानी सेनाध्यक्ष के पाकिस्तान संसद में दिए गए बयान का करारा जवाब दिया है। उन्होंने शुक्रवार को बाड़मेर-जैसलमेर से सटी भारत-पाकिस्तान सीमा के निकट मीडिया से बातचीत में कहा कि शांति तो सभी चाहते हैं, लेकिन आतंकवाद को समर्थन बंद किए बिना कोई कैसे शांति वार्ता की कल्पना कर सकता है।

कुछ मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार पाकिस्तानी थल सेनाध्यक्ष जनरल कमर जावेद बाजवा ने पाकिस्तानी सिनेट में सरकार को भारत के साथ शांति वार्ता करने की सलाह देते हुए कहा है कि पाकिस्तानी सेना इस मामले में सरकार को पूरा समर्थन देगी। इसी मुद्दे पर पश्चिम मोर्चे के दौरे पर आए भारतीय थलसेनाध्यक्ष जनरल रावत से पूछा गया तो उन्होंने बेबाकी के साथ जवाब दिया। उनका कहना था कि शांति हम भी चाहते हैं, लेकिन यह सभी देख रहे हैं कि पाकिस्तान कश्मीर में क्या कर रहा है। आतंक को समर्थन बंद किए बिना शांति कैसे सम्भव है।

हालांकि सेनाध्यक्ष इस तरह के राजनीतिक-कूटनीतिक जवाबों से कन्नी काटते हैं, लेकिन जनरल रावत ने एक बार फिर बेबाकी के साथ कूटनीतिक सवाल का जवाब देने में भी कोई हिचक नहीं दिखाई। उन्होंने एक दिन पहले भारतीय विदेश मंत्रालय के इस सम्बन्ध में आए जवाब का ही समर्थन किया है, लेकिन थलसेनाध्यक्ष की इस तरह की बेबाकी पहली बार नहीं है। पाकिस्तान में तो माना कि सरकार सेना के इशारे के बिना नहीं चल सकती और दुनिया जानती है कि चुनी हुई लोकतांत्रिक सरकार को भी पाकिस्तान में कैसे सेना का पिट्ठू बनकर काम करना पड़ता है, लेकिन भारत में सेनाध्यक्ष की ऐसे राजनीतिक मामलों में बेबाकी कम ही नजर आती है। आमतौर पर सेनाध्यक्ष यह कहते हुए बात टाल जाते हैं कि सेना अपना काम बखूबी कर रही है। वह किसी भी चुनौती का सामना करने में सक्षम है। शांति वार्ता का काम सरकार का है।


जनरल रावत ने न सिर्फ पाकिस्तानी सेनाध्यक्ष को करारा जवाब दिया, बल्कि बातचीत में यह भी साफ कह दिया कि सेना कश्मीर में आतंकियों के खिलाफ सख्ती को जारी रखेगी। उन्होंने कहा कि सेना ही नहीं कश्मीर घाटी में तैनात अर्द्धसैनिक बलों के जवान भी आपसी सामंजस्य के साथ आतंककारियों के खात्मे में जुटे हैं। यह काम लगातार जारी रहेगा। हालांकि उन्होंने कश्मीर में पत्थरबाजों के खिलाफ मुकदमे वापस लेने के सवाल का गोलमाल जवाब दिया।

राजस्थान से सटी भारत-पाकिस्तान के सामने बहावलपुर में चल रहे पाकिस्तान सेना के युद्धाभ्यास और बाड़मेर-जैसलमेर में भारतीय सेना के युद्धाभ्यास ‘हमेशा विजयी’ के बारे में पूछे जाने पर् उन्होंने कहा कि वे अपना काम कर रहे हैं और हम हमारा अभ्यास। सेना इस तरह का अभ्यास सर्दियों में करती रहती है। भारतीय सेना की दक्षिण कमान का यह द्विवार्षिक अभ्यास भारत की सामरिक रणनीति के लिए अहम है।

थलसेनाध्यक्ष ने कहा कि सेना के पास हथियारों की कोई कमी नहीं है। इन्सास के बाद सेना को हालांकि कोई नई असॉल्ट राइफल नहीं मिली है, लेकिन सरकार ने राइफल खरीद के लिए सेना को हरी झंडी दे रखी है। थल सेना ने अपना सहमति पत्र जारी कर दिया है और राइफल्स का परीक्षण किया जा रहा है। जो राइफल सेना के अनुरूप होगी, उसकी खरीद की जाएगी।

पाक से सटी सीमा पर भारतीय फौज की ‘सर्जिकल स्ट्राइक’




सुरेश व्यास

चारों ओर रेत का समंदर...सन्नाटा तोड़ते सांय-सांय करती हवा के झोंके और बहुत ही नजदीक नजर आ रही अन्तरराष्ट्रीय सीमा। हालांकि आदमजात का कोई नामोनिशान नजर नहीं आ रहा था, इस रेतीले इलाके में, लेकिन थोड़ी सी दूरी पर कुछ झाड़ियां हिली। आसमान से कुछ लोग उतरते नजर आए। पलक झपकी ही नहीं थी कि समूचा इलाका गोलियों की तड़तड़ाहट और धमाकों से गूंज उठा। चारों ओर धूल और धुएं के गुबार। लगभग दस मिनट के बाद फिर वही मरघट सी शांति और सांय सांय करती हवा के झोंकों के बीच विजयी मुस्कान बिखेरते सेना के जवान।
ये दृश्य नजर आया राजस्थान के बाड़मेर-जैसलमेर जिलों से सटी भारत-पाकिस्तान सीमा के निकट। मौका था थल सेना की पुणे स्थित दक्षिणी कमान के द्विवार्षिक युद्धाभ्यास का। इसे नाम दिया गया- ‘हमेशा विजय’ और इसमें पहली बार सेना के जवानों ने सर्जिकल स्ट्राइक का नजारा पेश कर साबित किया कि भारतीय सेना के जवान दुश्मन को भीतर घुसकर भी नैस्तनाबूद करने में किस तरह सक्षम हैं।



संयोग या कुछ और...
ये संयोग ही कहा जाएगा कि आज ही के दिन एक साल पहले भारतीय फौज ने जम्मू-कश्मीर में नियंत्रण रेखा पार कर पाकिस्तान की सीमा चौकियों को ध्वस्त किया था और पहली बार सर्जिकल स्ट्राइक का जमकर प्रचार किया गया। इस बहुचर्चित सर्जिकल स्ट्राइक की बरसी पर दक्षिणी कमान के कमाण्डो ने भारतीय थलसेनाध्यक्ष जनरल बिपिन रावत की मौजूदगी में पश्चिमी मोर्चे पर सर्जिकल स्ट्राइक का ट्रेलर पेश कर कुछ ही किलोमीटर की दूरी पर बैठे पाकिस्तानी सैन्याधिकारियों को यह संदेश देने की कोशिश की कि भारतीय फौज अब उन्हें 1971 की तरह टैंक ब्रिगेड के साथ रेगिस्तान के लोंगोवाला में घुसने का मौका ही नहीं देगी।
युद्धाभ्यास का सामरिक महत्व
दरअसल, भारतीय सेना थोड़े थोड़े अंतराल पर युद्धाभ्यास करती रहती है। इस बार जैसलमेर और बाड़मेर जिलों में स्थित सम्भवतः एशिया की सबसे बड़ी फील्ड फायरिंग रेंज में दक्षिणी कमान ने बड़ा युद्धाभ्यास किया है। इसमें कमान के लगभग तीन हजार से ज्यादा जवानों और अधिकारियों ने भाग लिया। युद्धाभ्यास हालांकि सेना के प्रशिक्षण का एक अहम हिस्सा है, लेकिन बदले हुए माहौल में आज सम्पन्न हुए युद्धाभ्यास का सामरिक महत्व कुछ अलग है।

कहां तक पहुंचा कोल्ड स्टार्ट
लगभग डेढ़ दशक पहले बदले गए सेना के युद्ध सिद्धान्त (वार डॉक्ट्रेन)- कोल्ड स्टार्ट की इस लगभग आखिरी कड़ी में सेना न सिर्फ कम समय में मोर्चे पर पहुंचने की रणनीति पर कामयाब हो रही है, बल्कि युद्धकाल में सेना के तीनों अंगों के साथ बेहतरीन सामंजस्य के प्रदर्शन से युद्ध को कम समय में ज्यादा मारक बनाने की कोशिशों को परवान चढ़ाने के प्रयास पर भी बहुत काम हो रहा है। युद्ध के मैदान में हथियारों के साथ तकनीक और खासकर बेहतरीन सर्विलांस उपकरणों के समुचित इस्तेमाल का पारंगतता हासिल करने की दिशा में भी ये युद्धाभ्यास खासे महत्वपूर्ण साबित हो सकते हैं।


तैयारी नेटवर्क सेंट्रिक वार की
सेना ने ‘हमेशा विजय’ युद्धाभ्यास में भी वायुसेना के साथ बेहतर तालमेल का प्रदर्शन किया. वहीं नेटवर्क सेंट्रिक वारगेम ने इसे आधुनिकता के रंग में रंगने में कोई कसर नहीं छोड़ी। खुद थल सेनाध्यक्ष जनरल रावत ने भी कहा कि- ‘सेना और वायुसेना की यह सामंजस्य अद्भुत है।’ जनरल रावत ने लगातार दो दिन युद्धाभ्यास के दौरान मौजूद रहकर इसका बारीकी से न सिर्फ जायजा लिया, बल्कि खुद टैंक राइडिंग कर स्वदेश निर्मित बैटल टैंक अर्जुन-1 की क्षमताओं को भी परखा।


हर चुनौती के सामने को सक्षम

जनरल रावत ने कहा कि भारतीय फौज देश की सुरक्षा जरूरतों के हिसाब से हर जरूरी कदम उठा रही है। हम किसी भी आपात स्थिति का सामना करने में सक्षम हैं। दक्षिण कमान के आर्मी कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल डीआर सोनी का कहना था कि इस युद्धाभ्यास से बहुत कुछ सुखद अनुभव हुए हैं। इन अनुभवों के आधार पर भारतीय सेना खुद को हर प्रतिकूल परिस्थिति में भी दुश्मन को सबक सिखाने में खुद को सक्षम और मजबूत पाती है।

Friday, December 8, 2017

पद्मिनी के इतिहास पर उन्माद का पर्दा


जिस किसी ने मलिक मोहम्मद जायसी के सन् 1540 में रचित महाकाव्य पद्मावत के बारे में नहीं सुना, उसे शायद चित्तौड़ की महारानी पद्ममिनी के जौहर के बारे में ही पता था। हमने भी सामाजिक ज्ञान की किताबों में पद्मिनी का जौहर ही पढ़ा है, रानी पद्मावती को तो नहीं पढ़ा।


-सुरेश व्यास
फिल्म पद्मावती को लेकर राजस्थान से उठा विवाद देशभर में फैलने के बाद इन दिनों हालांकि कुछ शांत हैं, लेकिन इस विवाद ने उन कई लोगों की कलई खोलकर रख दी, जिन्हें न तो इतिहास की जानकारी है और न ही फिल्मों की। इतिहास के जिस पात्र को लेकर संजय लीला भंसाली ने फिल्म पद्मावती बनाई है, उस पात्र को लेकर तो राजस्थान ही नहीं देश के इतिहासकार भी अलग अलग मतों में बंटे दिखाई देते हैं। तो सवाल उठना लाजिमी है कि फिल्म को देखे बिना कैसे किसी ने अंदाज लगा लिया कि फिल्म में इतिहास के साथ छेड़छाड़ करके समाज विशेष की छवि को खराब करने की साजिश की जा रही है। उन्माद का आलम देखिए कि जिस चित्तौड़ के किले में रानी पद्मिनी ने जौहर किया और उस स्मारक को देखने हजारों सैलानी रोज पहुंचते हैं, वहां के एक शिलालेख पर भी पर्दा डाल दिया गया। और तो और राजस्थान की भाजपा सरकार पद्मिनी का इतिहास नए सिरे से लिखने की घोषणा कर चुकी है। जबकि विरोध एक फिल्म का किसी वहम के आधार पर है, जिससे इतिहास भी कोई ताल्लुक नहीं रखता।

कहानी कैसे पता लग गई...?
देश के प्रमुख राजनेता कर्णसिंह ने इस विवाद के बीच शायद ठीक ही कहा है कि श्रद्धा का मतलब यह नहीं है कि इसके नाम पर आप किसी को धमका दें। कर्णसिंह देश के प्रतिषठित नेता है और राजपूत समाज का ही प्रतिनिधित्व करते हैं। फिल्म से उनकी भावनाएं तो आहत नहीं हुई। दरअसल, समूचे राजपूत समाज के नाम पर उन्माद फैलाने वाले उन  लोगों की भावनाएं जरूर आहत हुई होंगी, जिनको शायद सपने में किसी देवदूत ने आकर बताया होगा कि भंसाली अपनी फिल्म पद्मावती में रानी पद्ममिनी को आक्रांता शासत अल्लाउद्दीन खिलजी की प्रेमिका बताने जा रहे हैं। तभी तो इन नेताओं ने राजस्थान की राजधानी जयपुर के ऐतिहासिक किले में फिल्म की शूटिंग कर रहे भंसाली पर हमला और फिल्म के सेट पर तोड़फोड़ कर दी।
राष्ट्रमाता हो गई पद्मावती
जिस संगठन ने पद्मावती के विरोध का झण्डा उठाया है, उसके कुछ नेताओं का एक स्टिंग ऑपरेशन भी एक प्रमुख टीवी चैनल पर सामने आया था, जिसमें लेनदेन की बात करते संगठन के पदाधिकारी दिखाई दिए थे। फिर भी विरोध का झंडा बरदार बने संगठन करणी सेना के नेताओं ने फिल्म रीलिज होने से पहले देशभर में ऐसा उन्माद फेला दिया कि विरोध के कारणों की तह में गए बिना एक मुख्यमंत्री ने तो पद्मावती को राष्ट्रमाता का सम्बोधन देते हुए अपने राज्य में फिल्म का प्रदर्शन न होने का ऐलान कर दिया और उन्हीं मुख्यमंत्री के राज्य से आने वाली राजस्थान की मुख्यमंत्री ने कह दिया कि जब तक फिल्म में वांछित परिवर्तन नहीं हो जाता, वे फिल्म का प्रदर्शन करने की अनुमति नहीं देगी।  जिस फिल्म को अभी सेंसर बोर्ड की हरी झंडी नहीं मिली, जिस फिल्म को अभी किसी ने देखा नहीं, उस फिल्म के कथानक को लेकर इतना बवाल कि समूचे देश में एक फिल्म, फिल्मकार और फिल्मी कलाकार के प्रति घृणा का पहाड़ खड़ा कर दिया गया। अभिनेत्री दीपिका का नाक व भंसाली का सिर काटकर लाने वालों को करोड़ों के इनाम का ऐलान तक कर दिया गया।
पद्मावती कहां से आई
विवाद के कुछ भी कारण रहे हो, लेकिन इस तथ्य से कोई इनकार नहीं कर सकता कि जिस किसी ने मलिक मोहम्मद जायसी के सन् 1540 में रचित महाकाव्य पद्मावत के बारे में नहीं सुना, उसे शायद चित्तौड़ की महारानी पद्ममिनी के जौहर के बारे में ही पता था। हमने भी सामाजिक ज्ञान की किताबों में पद्मिनी का जौहर ही पढ़ा है, रानी पद्मावती को तो नहीं पढ़ा।
इतिहासकारों की ही सुन लेते
इतिहास से छेड़छाड़ की आशंका जताने वाले लोगों को देश के प्रसिद्ध इतिहासकार गौरीशंकर हीराचंद ओझा की उस टिप्पणी पर भी गौर करना चाहिए, जिसमें उन्होंने कहा है कि इतिहास के अभाव में लोगों ने पद्मावत को ऐतिहासिक पुस्तक मान लिया, परंतु वास्तव में वह आजकल के ऐतिहासिक उपन्यासों की सी कविताबद्ध कथा है, जिसका कलेवर इन ऐतिहासिक बातों पर रचा गया है कि रतनसिंह चित्तौड़ का राजा, पद्मिनी उसकी रानी और अल्लाउद्दीन दिल्ली का सुल्तान था,जिसने रतनसिंह से चित्तौड़ का किला छीना था।
पद्मावत कल्पना है या इतिहास
जैसा कि संजय लीला भंसाली का दावा है कि उनकी फिल्म पद्मावती जायसी के महाकाव्य के तथ्यों पर आधारित है, तो सवाल उठता है कि जिस महाकाव्य में इतिहास से ज्यादा कल्पनाशीलता को इतिहासकारों ने भी माना है, उसे इतिहास क्यों माना जा रहा है। फिल्में कब इतिहास का हिस्सा रही हैं। इस फिल्म में भी शायद जायसी के महाकाव्य के तथ्यों का ही नाट्य रूपांतरण कर उसे अलग अंदाज में पेश करने की कोशिश की गई होगी।
एक साल का राजा और...
पद्मावत पर विश्वास करें तो सिंहल देश की राजकुमारी के सौंदर्य का जिक्र एक तोते हीरामन से सुनकर रतनसिंह मोहित हो गया और वह इतना बैचेन हो गया कि सिंहल देश पहुंच कर पद्मावती को ब्याह लाया। यदि इतिहास से इस तथ्य को देखें तो ये सिर्फ कल्पना ही साबित होगी, कारण कि राजस्थान के इतिहास में यह साफ उल्लेख है कि रतनसिंह का कार्यकाल मात्र एक साल और कुछ महीनों का रहा था। फिर रतनसिंहर राजा रहते हुए कैसे सिंहल प्रदेश पहुंच गया, वहां से पद्मावती को ब्याह लाया और खिलजी की कैद से छूटने के बाद पड़ोस के राज्य से जंग से घायल होने के बाद फौत हो गया। जायसी ने जिस सिंहल प्रदेश, हीरामन तोते और पड़ोसी राजा का जिक्र किया है, इतिहासकार उसे मान्यता ही नहीं देते। जायसी की कल्पना में यदि खिलजी पद्मिनी पर मोहित होता है तो उसे इतिहास का हिस्सा तो नहीं माना जा सकता।
फिल्म तो फिल्म है

फिल्में तो मनोरंजन के लिए बनती हैं। संजय लीला भंसाली की ही फिल्म बाजीराव मस्तानी को ही अगर मनोरंजन के इत्तर इतिहास से जोड़कर देखा गया होता तो महाराष्ट्र में बवाल नहीं मच गया होता। देश में ऐतिहासिक पात्रों को लेकर कई फिल्में बनी हैं, उन्हें तो फिल्म की तरह ही लिया गया, फिर पद्मावती पर इतना बवाल क्यों? इस मामले में केंद्रीय मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी के उस बयान की सराहना की जानी चाहिए, जिसमें उन्होंने कहा था कि फिल्म को फिल्म की नजर से ही देखा जाना चाहिए। जिस जिन फिल्मों में इतिहास और भूगोल खोजा जाने लगेगा, उस दिन फिल्म फिल्म नहीं रह जाएगी।

क्या ये है ट्रंप का ‘आत्मघाती’ कदम


वर्ष 2001 से या यूं कहें कि इससे पहले ही अमरीका दुनिया भर में तेजी से बढ़ रहे इस्लामी आतंकवाद के निशाने पर है। 26 सितम्बर को न्यूयार्क के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर अलकायदा के हमले के बाद से अमरीका आतंकियों के निशाने पर है।




-सुरेश व्यास
येरूशलम को इजरायल की राजधानी के रूप में मान्यता देने के प्रस्ताव पर जिस अमरीका के राष्ट्रपति पिछले करीब ढाई दशक से परहेज करते रहे, उस पर मौजूदा अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने एक झटके में हस्ताक्षर कर दिए। येरुशलम को इजरायल की राजधानी के रूप में मान्यता देने के साथ ही उन्होंने अमरीकी दूतावास को तेल अवीव से स्थानान्तरित करने के आदेश भी कर दिए। इस फैसले न सिर्फ अमरीका बल्कि दुनिया भर में सवाल उठ रहे हैं। लोग इस बात से हैरत में है कि आखिर ट्रम्प ने ऐसा फैसला क्यों किया?  वे आखिर चाहते क्या हैं?
बढ़ेगा इस्लामी आतंक का खतरा
वर्ष 2001 से या यूं कहें कि इससे पहले ही अमरीका दुनिया भर में तेजी से बढ़ रहे इस्लामी आतंकवाद के निशाने पर है। 26 सितम्बर को न्यूयार्क के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर अलकायदा के हमले के बाद से अमरीका आतंकियों के निशाने पर है। इस बात से अमरीका के अब तक के राष्ट्रपति वाकिफ रहे हैं और उन्होंने अमरीका और अमरीकी नागरिकों की सुरक्षा को सदैव प्राथमिकता दी है। यही वजह रही कि अमरीकी कांग्रेस में 1995 में पारित उस प्रस्ताव से अमरीका का नेतृत्व आज तक किनारा करता रहा, जिसमें येरूशलम को इजरायल की राजधानी के रूप में मान्यता देने का उल्लेख है। इसके पीछे साफ तौर पर सुरक्षा कारणों को गिनाया गया और कहा गया कि ये प्रस्ताव लागू करना अमरीका की सुरक्षा के लिए घातक सिद्ध हो सकता है। फिर ट्रंप ने क्यों इसे दरकिनार कर दिया? क्या ट्रंप को अमरीका और अमरीकी नागरिकों की सुरक्षा की चिंता नहीं है? क्या वे इस बारे में अपने चुनावी वादे को पूरा नहीं करते तो उनकी सियासी जिंदगी में कोई तूफान आ जाता? ये वो सवाल है जो अमरीकी जनता उनके सामने उठा सकती है।
अनुभवहीनता का असर
इस फैसले के पीछे भले ही कोई राजनीतिक स्वार्थ नीहित न हो, लेकिन ये सवाल उठना लाजिमी है कि ट्रंप के इस फैसले ने उनकी राजनीतिक अनुभवहीनता को ही साबित किया है। तभी तो न दुनिया भर में उनके इस फैसले के किरकिरी हो रही है। ट्रंप के फैसले से अरब और मुस्लिम देश तो नाराज हुए ही हैं और तुर्की ने तो इसे नरक का रास्ता खोलने तक की संज्ञा दे डाली है। साथ ही ये आशंका भी खड़ी होने लगी है कि ट्रंप के इस फैसले ने अमरीका में इस्लामी आतंकवाद के खतरे को फिर बढ़ा दिया है।
अब तक खानी पड़ी है मुंह की
दरअसल, येरुशलम शुरू से इजरायल और फलीस्तीन के बीच विवाद की अहम कड़ी रहा है। इजरायल की स्थापना के बाद से दुनिया के पहले या यूं कहें कि एक मात्र यहूदी देश इजरायल ने येरुशलम को अपनी राजधानी बनाने की कोशिश छोड़ी नहीं है, लेकिन इस मुद्दे पर कभी भी उसे दुनिया के अन्य देशों का समर्थन नहीं मिला। इसके बाद इजरायल ने 1980 में आधिकारिक तौर पर येरुशलम को अपनी राजधानी घोषित कर दिया, लेकिन दुनिया के किसी भी देश ने इसे मंजूरी नहीं दी। यही कारण है कि आज इजरालय के तेल अवीव शहर में ही अमरीका समेत अन्य देशों के 86 दूतावास हैं। कोई भी देश येरुशलम में अपना दूतावास ले जाने को तैयार नहीं है।

सुरक्षा परिषद भी रही है खिलाफ
इजरायल और फलीस्तीन के बीच संघर्ष की अहम कड़ी भी येरूशलम ही है। इजरायल ने 1967 में फलीस्तीन के साथ छह दिन की लड़ाई के बाद पूर्वी येरूशलम पर कब्जा किया था। इसकी सुरक्षा परिषद ने भी आलोचना की। दुनिया भर में इजरालय की निंदा की गई, लेकिन इजरायल ने जैसे येरूशलम को अपनी मूंछ का सवाल बना रखा है। पहली बार उसे इस मुद्दे पर अमरीका जैसे देश का प्रत्यक्ष और परोक्ष समर्थन मिला है, जबकि दुनिया सुरक्षा परिषद के अहम सदस्य के रूप में अमरीका को एक अच्छे मध्यस्थ के रूप में देखती आई है। यही वजह है कि फ्रांस, तुर्की, अरब देशों और यूरोपियन यूनियन ने ट्रंप के फैसले की आलोचना की है और इस निर्णय को गैर जरूरी व तनाव पैदा करने वाला करार दिया है। और तो और सुरक्षा परिषद के 15 में से 8 सदस्यों ने इस मुद्दे पर बैठक बुलाने की मांग तक कर डाली है।
अमरीका पर पड़ेगा प्रतिकूल असर
वैश्विक मामलों के जानकार कहते हैं कि ट्रम्प के इस फैसले से न सिर्फ अमरीकी को आतंकी चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है, बल्कि अरब देशों की मुस्लिम आबादी भी इस फैसले के खिलाफ खड़ी होती नजर आएगी। ट्रंप के इस फैसले ने साबित किया है कि वे राजनीतिक रूप से अनुभवहीन होने के कारण वैश्विक मामलों में अमरीका की स्थिति पर प्रतिकूल प्रभाव पड सकता है। ट्रंप की विदेशियों के प्रति वीजा नीति और अमरीकी फर्स्ट की पोलिसी से उन्हें लोकप्रियता तो हासिल हो सकती है, लेकिन इसके आर्थिक व राजनीतिक नुकसान अमरीका को उठाने पड़ सकते हैं।
मोदी सरकार की तटस्थता ही ठीक
येरूशलम के मामले में भारत के रवैये का जहां तक सवाल है, विदेश मंत्रालय ने स्पष्ट कहा है कि भारत की फलीस्तीन के प्रति नीति को कोई तीसरा देश प्रभावित नहीं कर सकता, लेकिन राजनीतिक रूप से साफ है कि नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद भारत ने इजरायल के प्रति तटस्थ रवैया अपनाया है, जबकि इससे पहले भारत हमेशा से फलीस्तीन का समर्थक ही रहा है। भारत के लिए हालांकि ट्रंप के फैसले का नफा-नुकसान अभी नहीं सोचा जा सकता, लेकिन जिस तरह से इजरायल के प्रति भारत का रवैया व्यावसायिक तौर पर ही सही लचीला होता जा रहा है, उसे लेकर आशंका तो खड़ी हो ही सकती हैष। भारत ने पाकिस्तान को दबाए रखने में अरब देशों की मदद की गरज से फलीस्तीन को समर्थन दिया है और इसका फायदा भी देखने को मिला है। ऐसे में माना जाना चाहिए कि भारत ट्रंप के फैसले पर तटस्थ भले ही रह जाए, लेकिन खुलकर साथ आने की स्थिति में तो आज भी नहीं है।

इसलिए भी अहम है येरूशलम
येरूशलम के प्रति न सिर्फ यहूदियों बल्कि मुसलमानों और इसाइयों की भी श्रद्धा है। तीनों ही जातियों के लोगों के लिए धार्मिक रूप से भी येरूशलम एक अहम स्थान है। यहूदी जहां टैम्पल माउंट के कारण येरुशलम के प्रति श्रद्धा रखते हैं, जबकि मुसलमानों के लिए येरूशलम की अल-अक्शा मस्जिद के कारण इसका महत्व है। मुसलमान अल-अक्शा मस्जिद को सीधे दौर पर इस्लाम के प्रवर्तक मोहम्मद साहब से जोड़कर देखते हैं। इसी तरह इसाइयों के लिए स्पूकबर चर्च के कारण येरूशलम का महत्व है। इसाई मानते हैं कि यहीं ईशा मसीह को सूली पर चढ़ाया गया था। ऐसे में ये स्थान अपना धार्मिक महत्व रखता है।

Wednesday, December 6, 2017

जब धोरे बन गए पाकिस्तानी टैंकों का कब्रिस्तान

जिस दिलेरी के साथ भारतीय सेना की 23 पंजाब रेजिमेंट में उस वक्त के मेजर चांदपुरी की अल्फा कम्पनी ने पाकिस्तान की भारी हथियारों से लैस पूरी टैंक ब्रिगेड को मामूली हथियारों के दम पर पूरी रात रोके रखा, वह न सिर्फ भारतीय सेना के सामरिक इतिहास बल्कि दुनिया के जमीनी लड़ाइयों के इतिहास का एक स्वर्णिम अध्याय के रूप में आज भी याद किया जाता है।

-सुरेश व्यास
भारतीय थल सेना की ओर से रीक्रिएट किए गए बैटल ऑफ लोंगोवाला में जब धड़धड़ाते हुए भारतीय सीमा में घुसे पाकिस्तानी टैंकों का मुकाबला जीप माउंटेड छोटी मोर्टार, हल्की मशीन गनों और पारम्परिक राइफलों से करने का दृश्य जीवंत हुआ तो भारत-पाकिस्तान के बीच 1971 में पश्चिम सीमा पर लड़ी गई लोंगोवाला की ऐतिहासक लड़ाई के हीरो रहे ब्रिगेडियर (सेविनवृत्त) कुलदीपसिंह चांदपुरी को भी शायद भरोसा नहीं हुआ होगा कि कैसे उनकी 120 फौजियों की टुकड़ी ने दुश्मन को रात के अंधेरे में ऐसी धूल चटाई कि पौ फटने तक रेत के धोरों पर पाकिस्तानी टैंकों का कब्रिस्तान ही नजर आया। हालांकि लोंगोवाला की लड़ाई में भारतीय वायुसेना के हंटर विमानों की अहम भूमिका रही थी, लेकिन जिस दिलेरी के साथ भारतीय सेना की 23 पंजाब रेजिमेंट में उस वक्त के मेजर चांदपुरी की अल्फा कम्पनी ने पाकिस्तान की भारी हथियारों से लैस पूरी टैंक ब्रिगेड को मामूली हथियारों के दम पर पूरी रात रोके रखा, वह न सिर्फ भारतीय सेना के सामरिक इतिहास बल्कि दुनिया के जमीनी लड़ाइयों के इतिहास का एक स्वर्णिम अध्याय के रूप में आज भी याद किया जाता है।
भारत ने वैसे तो पाकिस्तान के साथ 1971 से पहले दो लड़ाइयां लड़ी थी। पहली आजादी मिलने के तुरंत बाद श्रीनगर में घुस आए कबाइलियों को खदेड़ते वक्त और दूसरी 1965 में, लेकिन लोंगोवाला की लड़ाई राजस्थान से सटी पश्चिम सीमा पर पहली ऐतिहासिक लड़ाई के रूप में दर्ज है। इस लड़ाई के बारे में हालांकि कई बातें सामने आई है और जेपी दत्ता ने अपनी फिल्म बॉर्डर के जरिए हिन्दुस्तानी जनमानस में बैटल ऑफ लोंगेवाला को अमर कर दिया, लेकिन यह विडम्बना ही रही है कि इस लड़ाई के दो अहम किरदारों सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ) और भारतीय वायुसेना को आम लोगों के सामने उतना महत्व नहीं मिल सका, जिसका ये दोनों फोर्सेज हक रखती हैं। यह अलग बात है कि लोंगोवाला की लड़ाई में अदम्य साहस दिखाने के लिए मेजर चांदपुरी को महावीर चक्र व भारतीय वायुसेना के जांबाज आकाशवीरों को सैन्य अलंकरणों से नवाजा गया।
लोंगोवाला की लड़ाई में अहम भूमिका निभाने वाले विंग कमांडर एमएस बावा (जो बाद में एयर मार्शल के पद से रिटायर हुए) को तो लोग लोंगोवाला के सन्दर्भ में जानते हैं, लेकिन बीएसएफ के उस प्लाटून कमांडर और उनकी टीम को बहुत कम लोग जानते हैं, जिसने सबसे पहले पाकिस्तानी टैंकों के आने की आशंका जताई और दुश्मन फौज की रैकी के दौरान रेत के धोरों में लगाए गए मुटामों (राह संकेतकों) को अंधेरा छाने से पहले उल्टा घुमा और इस वजह से दुश्मन की टैंक ब्रिगेड अनजाने इलाके में रेत के धोरों के चारों ओर घूमती रही।
दरअसल, पूर्वी इलाके में बांग्लादेश बनने से पहले पाकिस्तान को मुक्ति वाहिनी से मुकाबला करना पड़ रहा था। इस दौरान पाकिस्तान ने भारत को दबाव में लाने के लिए पश्चिम मोर्चे पर हमला करने की योजना बनाई और रहिमयारखान से पूरी की पूरी टैंक ब्रिगेड और पैदल सेना को भारतीय इलाके पर कब्जा करने का टास्क दिया गया। 4 व  दिसम्बर 1971 की दरम्यानी रात को पाकिस्तान की टैंक ब्रिगेड ने ब्रिगेडियर तारिक मीर की अगुवाई में जैसलमेर जिले के घोटारू के रास्ते लोंगोवाला में प्रवेश किया। इससे पहले बीएसएफ की टुकड़ी ने जब पाकिस्तान मुटाम दिखने और दुश्मन की तैयारी के बारे में भारतीय सेना के अधिकारियों को सूचित किया तो उस पर पहली बार विश्वास तक नहीं किया गया। रामगढ़ स्थित भारतीय फौज के ब्रिगेड मुख्यालय को तो भारतीय वायुसेना ने भी संकेत किए थे, लेकिन उस वक्त के हालात ऐसे थे कि कोई सोच भी नहीं सकता था कि पाकिस्तान पश्चिम मोर्चे पर भी आकस्मिक आक्रमण करेगा। विंग कमांडर बावा व सेना की एरियल आउट पोस्ट के मेजर आतमसिंह की हवाई रैकी में भी पाकिस्तानी फौज की योजना के संकेत मिले, लेकिन इन्हें भी अविश्वसनीय माना गया।
छोटी टुकड़ी का पहाड़ सा हौंसला
आखिर रात करीब साढ़े 12 बजे पाकिस्तान टैंक ब्रिगेड लोंगोवाला में घुस आई और पहला निशाना लोंगोवाला में बीएसएफ की सीमा चौकी बनी। पाकिस्तानी फौज के इस पहले हमले में बीएसएफ के दस ऊंट मारे गए। भारतीय फौज को टैंक ब्रिगेड रोकने के लिए बारूदी सुरंगे बिछाने तक का पूरा मौका नहीं मिला। इधर 65 टैंक, 138 मिलिट्री वाहन, 5 फील्ड एयरगन और दो विमान रोधी तोपों के साथ पाकिस्तानी फौज धड़धड़ाते हुए भारतीय इलाके में घुसी जा रही थी। उसका इरादा लोंगोवाला से घुसकर रामगढ़ के बाद जैसलमेर पर कब्जे का था और उसने पूरी तैयारी के साथ हमला किया था,  लेकिन मेजर चांदपुरी की टुकड़ी के पास टैंकों को उड़ाने वाले पूरे हथियार तक नहीं थे। ऐसे में दो ही विकल्प बचे थे कि या तो भारतीय फौज पीछे हट जाए या फिर पाकिस्तानी फौज को सूर्य की पहली किरण फटने तक रोके रखा जाए। कारण कि उस दौर में भारतीय वायुसेना के पास रात में भी हमला करने वाले विमान नहीं थे और हंटर व मारूत विमान हल्की रोशनी में ही हमला कर सकते थे। लेकिन मेजर चांदपुरी ने कुशल रणनीति से उपलब्ध संसाधनों का बेहतर प्रयोग करते हुए पाकिस्तानी फौज के मुकाबले का फैसला किया और अदम्य साहस दिखाते हुए उनकी अलफा कम्पनी ने पूरे छह घंटे तक पाकिस्तानी फौज को रोके रखा।
पौ फटते ही जलते हुए नजर आए दुश्मन के टैंक
तड़के जैसलमेर से उड़े भारतीय वायुसेना के विमानों ने एक के बाद एक जब पाकिस्तानी टैंकों को उड़ाना शुरू किया तो खुद पाकिस्तानी कमांडर सन्न रह गए। सूरज निकलने तक तो लोंगोवाला में चारों ओर जलते हुए पाकिस्तानी टैंक ही नजर आ रहे थे। लोंगोवाल पहला लड़ाई का मैदान था, जहां 37 पाकिस्तानी टैंक और 100 से ज्यादा मिलिट्री वाहन नष्ट हो गए। कई टैंक भारतीय फौज ने अपने कब्जे में कर लिए। दो सौ पाकिस्तानी सैनिकों को जान गंवानी पड़ी। कम संसाधनों के बावजूद पाकिस्तान के इरादों पर पानी फेरने वाली 23 पंजाब की अल्फा कम्पनी के सिख जवानों ने पाकिस्तानी टेंकों पर चढ़कर भांगड़ा किया। पाकिस्तान फोज के ब्रिगेडियर और कई अफसरों की वर्दियां तक खुल गई। टैंक पर चढ़कर भांगड़ा कर रहे जवानों से घिरे ब्रिगेडियर तारिक मीर की कच्छे बनियान वाली तस्वीर ने समूची भारतीय फौज के हौंसले को सातवें आसमान पर पहुंचा दिया। उस लम्हे की बदौलत ही लोंगोवाला को आज  पाकिस्तानी टैंकों का कब्रिस्तान कहा जाता है।
अब हिम्मत नहीं हो सकती पाकिस्तान की

लोंगोवाला की लड़ाई के संदर्भ में भारतीय और पाकिस्तानी सेनाओं की रणनीतिक चूकों को लेकर कई टीका टिप्पणियां भी हुई, लेकिन आज हालात इतने बदल गए हैं कि पाकिस्तान पश्चिम सीमा की तरफ मुंह उठाकर देखने की हिम्मत तक नहीं कर सकता। आज न तो भारतीय फौज को दुश्मन को रात भर एंगेज रखने की जरूरत पड़ेगी और न ही वायुसेना को पौ फटने का इंतजार करना पड़ेगा। पाकिस्तान पर लोगोंवाला में मिली ऐतिहासिक जीत हर साल 5 दिसम्बर को लोंगोवाला दिवस के रूप में मनाई जाती है। इस बार इस जीत की पूर्व संध्या पर हाल ही जैसलमेर में तैनात की गई भारतीय सेना की 12वीं डिविजन ने लोंगोवाला के सीन को रिक्रिएट करने के बहाने अपनी क्षमता का प्रदर्शन किया तो लोंगोवाला की रणभूमि में मौजूद ब्रिगेडियर चांदपुरी व उनके सहयोगी रहे लेफ्टिनेंट धरमवीर न सिर्फ स्मृतियों में खो गए, बल्कि फौज की तैयारी को देख उनका सीना गर्व से फूल गया।