Thursday, October 15, 2015

अभिव्यक्ति की आजादी बनाम राजनीति

अभिव्यक्ति की रक्षा और राजनीति

सबसे पहले उदय प्रकाश और उनके करीब एक माह बाद पूर्व प्रधानमंत्री की भांजी नयनतारा सहगल और अशोक वाजपेयी। अब तो जैसे देश के कलमकारों में अपने अपने पुरस्कार लौटाने की हौड़ सी मची है और लगभग दो दर्जन से ज्यादा कलमजीवी अपने पुरस्कार लौटा चुके हैं। बिना किसी वैचारिक भेद और दुराव के। सभी का एक ही विरोध है कि देश में धार्मिक असहिष्णुता बढ़ रही है। शासन मौन है। बेगुनाह मारे जा रहे हैं। कलमकारों की अभिव्यक्ति पर ताला लगाने की कोशिश हो रही है और विरोध करने वालों को मौत के घाट उतारा जा रहा है। चाहे कर्नाटक के ख्यातनाम लेखक कुलबर्गी हो या फिर महाराष्ट्र के गोविन्द पनसारे और नरेन्द्र दाभोलकर की हत्या।
कलमकारों के विरोध का यह एक तरीका है। आखिर देश की संस्कृति और समाज पर आफत के दौर में कलमकार अपने शब्दों के जरिए प्रतिकात्मक विरोध ही तो जता सकता है और शुरुआत में जब प्रसिद्ध साहित्यकार उदयप्रकाश ने सितम्बर माह के पहले पखवाड़े में अपना साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाकर कुलबर्गी की हत्या का विरोध किया तो इसे प्रतीकात्मक विरोध के रूप में ही लिया गया। वह था भी प्रतिकात्मक विरोध ही, लेकिन इसके बाद नयनतारा सहगल ने दादरी में गोमांस के संदेह में एक अधेड़ को घर से बाहर निकाल कर पीट पीट कर मार दिए जाने और सत्ता के सर्वोच्च शिखर पर बैठे लोगों की चुप्पी पर आपत्ति जताते हुए अपना पुरस्कार लौटाया। अगले दिन अशोक वाजपेयी सुर्खियों में आए और अब जैसे जैसे पुरस्कार लौटाने वाले लेखकों-साहित्यकारों की संख्या बढ़ती जा रही है, वैसे वैसे इन साहित्यकारों को समर्थन और विरोध में कई धड़े सामने आ रहे हैं। सबसे ज्यादा मौका उन लोगों को मिला है, जो सोशल मीडिया को अपनी भड़ास निकालने का साधन ही समझ बैठे हैं और जिन लोगों की वजह से सोशल मीडिया पर भक्त और ...ड़वे जैस जुमले नमुदार हो रहे हैं।
दरअसल, कलमकारों का विरोध अपनी जगह है और राजनेताओं की ओर से उनका विरोध अपनी जगह। यह प्रतिष्ठापित तथ्य है कि आज तक जब जब देश और समाज के सामने कोई संकट या आफत आई है, कलमकारों ने मे प्रतिकात्मक रूप से विरोध दर्ज करवाया है। आखिर कलमकार जमात राजनेता तो हो नहीं सकती जो धरना प्रदर्शन करे? फिर भी इस बात में कोई दो राय नहीं कि अब जैसे जैसे पुरस्कार लौटाने की हौड़ मची है, उसे देखकर मंतव्य पर सवाल उठना लाजिमी है।
केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली के अलावा कांग्रेस नेता और स्तम्भकार शशि थरूर भी पुरस्कार लौटाने वालों के विरोध में खड़े नजर आ रहे हैं। अपनी बेबाकी के कारण जाने जाने वाले अभिनेता अनुपम खैर तो खुलेतौर पर इसे प्रधानमंत्री की छवि खराब करने की कोशिशों का हिस्सा बता चुके हैं। हालांकि उनकी पत्नी भाजपा की सांसद है, फिर भी उनका बयान अनुपम को बेबाकी के लिए पहचानने वाले लोगों को नहीं पचा।
सवाल पुरस्कार लौटाने या नहीं लौटाने का नहीं है। सवाल धार्मिक असहिष्णुता बढऩे पर मौन और मुखर होने का भी नहीं है। सवाल इस बात पर उठ रहा है कि जिस तरह राजनीति की तरह सोशल मीडिया पर भी भक्त और नास्तिक जैसे दो धड़े बनते जा रहे हैं और लेखकों के पक्ष और विपक्ष में विष वमन किया जा रहा है, वह देश में सांस्कृतिक साम्प्रदायिकता फैलाने की कोशिश से कम नहीं है। लोग उदयप्रकाश, नयनतारा और अशोक वाजपेयी के पुरस्कार लौटाने को राजनीति से प्रेरित बताते हैं। एक मंच से सवाल उठा कि नयनतारा को 1986 में साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला और इससे दो साल पहले दिल्ली में सिक्खों का कत्लेआम हुआ तो उन्होंने राजीव गांधी के प्रधानमंत्रीत्व काल में पुरस्कार ग्रहण क्यों किया? लेकिन यह सवाल उठाने वाले भूल जाते हैं कि 1975 में अपनी बहन इंदिरा गांधी के आपातकाल लगाने के फैसले का सबसे पहले विरोध भी नयनतारा ने ही किया था।
न्याय की तराजू के पलड़े बराबर होने चाहिए। विरोध करने वाले लोगों को यह नहीं भूलना चाहिए कि आपातकाल लगाए जाने के विरोध में राजनेताओं के साथ पत्रकारों और साहित्यकारों ने भी अपने तरीके से विरोध दर्ज करवाया था। जेल में भी डाले गए थे। उस वक्त तो इनकी सराहना की गई। आज सराहना करने वाले लोग सत्ता में है तो विरोध। क्यों भाई? क्या विरोध करने वाले दादरी में इखलाल मियां को मार दिए जाने को सही मानते हैं? क्या कर्नाटका में कुलबर्गी की हत्या को जायज ठहराते हैं? क्या महाराष्ट्र में ढोंगियों का विरोध करने वाले पनसारे व दाभोलकर को अपराधियों द्वारा दी गई सजा-- मौत वाजिब थी? यदि नहीं तो इस पर चुप्पी पर सवाल उठाना कैसे गलत हो सकता है। देश में सभी को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है। सोशल मीडिया ने लेखकों-पत्रकारों के अलावा एक और नई जमात खड़ी की है, जिसका काम अपने आकाओं को खुश करने के लिए ऊलजुलूल बातें फैलाना ही रह गया है। इस चक्कर में सोशल मीडिया के जरिए अपनी भावनाएं अभिव्यक्त करने वाले, खासकर सत्ता विरोधी टिप्पणी करने वाले और सामाजिक अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने वाले लोग इस धड़े के निशाने पर हैं। पत्रकार रवीश कुमार से ज्यादा इस दर्द को शायद कोई समझ नहीं पाए। जिस तरह रवीश को सोशल साइट्स पर गरियाया गया। उनके नाम की फेक आईडी बनाकर कमेंट्स कर उन्हें कटघरे में खड़ा करने की कोशिश की गई, उससे इस नए खतरे को समझा जा सकता है। एक धड़ा बहन गया है जो सत्ता विरोधी आवाज सुनना ही नहीं चाहता। अभिव्यक्ति की आजादी को आजादी रहने दीजिए, इसे राजनीति का अखाड़ा मत बनाइए। हमारे देश की पहचान अनेकता में एकता है। मत अनेक हो सकते हैं, देश को एक ही रहने दीजिए, वरना आज एक सत्रह साल के बच्चे ने जिस तरह कुलबर्गी हत्याकाण्ड के विरोध में अपना पुरस्कार लौटाकर समाज के मुहं पर तमाचा मारा है, उसी तरह आने वाली पीढिय़ां हमे कभी माफ नहीं करेगी।
अभिव्यक्ति की रक्षा बनाम राजनीति
सबसे पहले उदय प्रकाश और उनके करीब एक माह बाद पूर्व प्रधानमंत्री की भांजी नयनतारा सहगल और अशोक वाजपेयी। अब तो जैसे देश के कलमकारों में अपने अपने पुरस्कार लौटाने की हौड़ सी मची है और लगभग दो दर्जन से ज्यादा कलमजीवी अपने पुरस्कार लौटा चुके हैं। बिना किसी वैचारिक भेद और दुराव के। सभी का एक ही विरोध है कि देश में धार्मिक असहिष्णुता बढ़ रही है। शासन मौन है। बेगुनाह मारे जा रहे हैं। कलमकारों की अभिव्यक्ति पर ताला लगाने की कोशिश हो रही है और विरोध करने वालों को मौत के घाट उतारा जा रहा है। चाहे कर्नाटक के ख्यातनाम लेखक कुलबर्गी हो या फिर महाराष्ट्र के गोविन्द पनसारे और नरेन्द्र दाभोलकर की हत्या।
कलमकारों के विरोध का यह एक तरीका है। आखिर देश की संस्कृति और समाज पर आफत के दौर में कलमकार अपने शब्दों के जरिए प्रतिकात्मक विरोध ही तो जता सकता है और शुरुआत में जब प्रसिद्ध साहित्यकार उदयप्रकाश ने सितम्बर माह के पहले पखवाड़े में अपना साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाकर कुलबर्गी की हत्या का विरोध किया तो इसे प्रतीकात्मक विरोध के रूप में ही लिया गया। वह था भी प्रतिकात्मक विरोध ही, लेकिन इसके बाद नयनतारा सहगल ने दादरी में गोमांस के संदेह में एक अधेड़ को घर से बाहर निकाल कर पीट पीट कर मार दिए जाने और सत्ता के सर्वोच्च शिखर पर बैठे लोगों की चुप्पी पर आपत्ति जताते हुए अपना पुरस्कार लौटाया। अगले दिन अशोक वाजपेयी सुर्खियों में आए और अब जैसे जैसे पुरस्कार लौटाने वाले लेखकों-साहित्यकारों की संख्या बढ़ती जा रही है, वैसे वैसे इन साहित्यकारों को समर्थन और विरोध में कई धड़े सामने आ रहे हैं। सबसे ज्यादा मौका उन लोगों को मिला है, जो सोशल मीडिया को अपनी भड़ास निकालने का साधन ही समझ बैठे हैं और जिन लोगों की वजह से सोशल मीडिया पर भक्त और ...ड़वे जैस जुमले नमुदार हो रहे हैं।
दरअसल, कलमकारों का विरोध अपनी जगह है और राजनेताओं की ओर से उनका विरोध अपनी जगह। यह प्रतिष्ठापित तथ्य है कि आज तक जब जब देश और समाज के सामने कोई संकट या आफत आई है, कलमकारों ने मे प्रतिकात्मक रूप से विरोध दर्ज करवाया है। आखिर कलमकार जमात राजनेता तो हो नहीं सकती जो धरना प्रदर्शन करे? फिर भी इस बात में कोई दो राय नहीं कि अब जैसे जैसे पुरस्कार लौटाने की हौड़ मची है, उसे देखकर मंतव्य पर सवाल उठना लाजिमी है।
केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली के अलावा कांग्रेस नेता और स्तम्भकार शशि थरूर भी पुरस्कार लौटाने वालों के विरोध में खड़े नजर आ रहे हैं। अपनी बेबाकी के कारण जाने जाने वाले अभिनेता अनुपम खैर तो खुलेतौर पर इसे प्रधानमंत्री की छवि खराब करने की कोशिशों का हिस्सा बता चुके हैं। हालांकि उनकी पत्नी भाजपा की सांसद है, फिर भी उनका बयान अनुपम को बेबाकी के लिए पहचानने वाले लोगों को नहीं पचा।
सवाल पुरस्कार लौटाने या नहीं लौटाने का नहीं है। सवाल धार्मिक असहिष्णुता बढऩे पर मौन और मुखर होने का भी नहीं है। सवाल इस बात पर उठ रहा है कि जिस तरह राजनीति की तरह सोशल मीडिया पर भी भक्त और नास्तिक जैसे दो धड़े बनते जा रहे हैं और लेखकों के पक्ष और विपक्ष में विष वमन किया जा रहा है, वह देश में सांस्कृतिक साम्प्रदायिकता फैलाने की कोशिश से कम नहीं है। लोग उदयप्रकाश, नयनतारा और अशोक वाजपेयी के पुरस्कार लौटाने को राजनीति से प्रेरित बताते हैं। एक मंच से सवाल उठा कि नयनतारा को 1986 में साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला और इससे दो साल पहले दिल्ली में सिक्खों का कत्लेआम हुआ तो उन्होंने राजीव गांधी के प्रधानमंत्रीत्व काल में पुरस्कार ग्रहण क्यों किया? लेकिन यह सवाल उठाने वाले भूल जाते हैं कि 1975 में अपनी बहन इंदिरा गांधी के आपातकाल लगाने के फैसले का सबसे पहले विरोध भी नयनतारा ने ही किया था।
न्याय की तराजू के पलड़े बराबर होने चाहिए। विरोध करने वाले लोगों को यह नहीं भूलना चाहिए कि आपातकाल लगाए जाने के विरोध में राजनेताओं के साथ पत्रकारों और साहित्यकारों ने भी अपने तरीके से विरोध दर्ज करवाया था। जेल में भी डाले गए थे। उस वक्त तो इनकी सराहना की गई। आज सराहना करने वाले लोग सत्ता में है तो विरोध। क्यों भाई? क्या विरोध करने वाले दादरी में इखलाल मियां को मार दिए जाने को सही मानते हैं? क्या कर्नाटका में कुलबर्गी की हत्या को जायज ठहराते हैं? क्या महाराष्ट्र में ढोंगियों का विरोध करने वाले पनसारे व दाभोलकर को अपराधियों द्वारा दी गई सजा-- मौत वाजिब थी? यदि नहीं तो इस पर चुप्पी पर सवाल उठाना कैसे गलत हो सकता है। देश में सभी को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है। सोशल मीडिया ने लेखकों-पत्रकारों के अलावा एक और नई जमात खड़ी की है, जिसका काम अपने आकाओं को खुश करने के लिए ऊलजुलूल बातें फैलाना ही रह गया है। इस चक्कर में सोशल मीडिया के जरिए अपनी भावनाएं अभिव्यक्त करने वाले, खासकर सत्ता विरोधी टिप्पणी करने वाले और सामाजिक अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने वाले लोग इस धड़े के निशाने पर हैं। पत्रकार रवीश कुमार से ज्यादा इस दर्द को शायद कोई समझ नहीं पाए। जिस तरह रवीश को सोशल साइट्स पर गरियाया गया। उनके नाम की फेक आईडी बनाकर कमेंट्स कर उन्हें कटघरे में खड़ा करने की कोशिश की गई, उससे इस नए खतरे को समझा जा सकता है। एक धड़ा बहन गया है जो सत्ता विरोधी आवाज सुनना ही नहीं चाहता। अभिव्यक्ति की आजादी को आजादी रहने दीजिए, इसे राजनीति का अखाड़ा मत बनाइए। हमारे देश की पहचान अनेकता में एकता है। मत अनेक हो सकते हैं, देश को एक ही रहने दीजिए, वरना आज एक सत्रह साल के बच्चे ने जिस तरह कुलबर्गी हत्याकाण्ड के विरोध में अपना पुरस्कार लौटाकर समाज के मुहं पर तमाचा मारा है, उसी तरह आने वाली पीढिय़ां हमे कभी माफ नहीं करेगी।

No comments:

Post a Comment