Wednesday, May 18, 2016

राफेल पर रार और तेजस की दरकार


 --सुरेश व्यास
स्वदेश निर्मित पहले हल्के लड़ाकू विमान तेजस को जो वायुसेना आज तक कभी ओवरवेट (भारी), अंडर पॉवर (कमजोर) और ओबसोलेट (बेकार) और यहां तक कि तीन टांग वाला चीता कहती रही और उसकी लगातार अनदेखी के कारण न सिर्फ तीन दशक तक यह परियोजना पूरी नहीं हो सकी, उसी वायुसेना के प्रमुख एयर चीफ मार्शल अरूप राहा के मुंह से तेजस की तारीफ चौंकाने वाली है। रेंग-रेंग कर पूरी होने की ओर बढ़ रही तेजस परियोजना के तहत पहला स्वदेशी हल्का लड़ाकू विमान वर्ष 2001 में सामने आया। फिर भी अब तक वायुसेना में अपना मुकाम नहीं बना पाया। पहली उड़ान के लगभग 15 साल बाद कोई तेजस उड़ाने वाले राहा पहले वायुसेनाध्यक्ष हैं। राहा ने न सिर्फ तेजस उड़ाया, बल्कि आधे घंटे की उड़ान की मारक क्षमता को परखा। इसके बाद उनका यह कहना कि यह वायुसेना की जरूरतों के हिसाब से एक बेहतरीन विमान है, विमान निर्माता सरकारी कम्पनी हिन्दुस्तान एयरोनोटिकल्स लिमिटेड के लिए जरूर सुखदायी है। फिर भी सवाल उठ रहा है कि तेजस की अब तक 3050 परीक्षण उड़ानों के बाद आखिर वायुसेना का हृदय परिवर्तन अब क्यों हुआ?
क्या यह प्रधानमंत्री मोदी के 'मेक इन इंडियाÓ कार्यक्रम का नतीजा है? क्या हाल ही बहरीन में आयोजित अन्तरराष्ट्रीय एयर शो में तेजस के अद्भुत प्रदर्शन की बदौलत वायुसेना की राय बदली है? या फिर क्या बुढिय़ाए जा रहे मिग श्रेणी के विमानों के कारण लगातार घट रही वायुसेना की लड़ाकू विमान स्क्वाड्रन और राफेल सौदे में हो रही देरी ने वायुसेना को इसके लिए मजबूर किया है?
कहने को तो तेजस परियोजना को आई तेजी को मेक इन इंडिया से जोड़ा जा सकता है, लेकिन जब हमारे सामने मोदी का फ्रांस के राष्ट्रपति होलांद के साथ गत जनवरी में 26 राफेल भारी कीमत में खरीदने का करार हो तो, इसे मानने का मन नहीं करता। वह भी उस तथ्य की रोशनी में कि जिस फ्रांस से पूर्ववर्ती यूपीए सरकार ने वर्ष 2007 में 126 राफेल करीब 48 हजार करोड़ रुपए में खरीदने की मंजूरी दी थी, उसी राफेल निर्माता कम्पनी डासॉल्ट से हम मात्र 36 राफेल विमान 65 हजार करोड़ रुपए में खरीदने के लिए राजी हो रहे हैं।
रुपए का अवमूल्यन और उत्पादन लागत बढऩे के तर्क अपनी जगह पर हो सकते हैं, लेकिन क्या फ्रांस से सौदे की आधी राशि भारत में निवेश के वादे के साथ महंगे राफेल खरीदना क्या उस देश के लिए उचित हैं, जहां बुंदेलखण्ड में लोग घास की रोटी खाने के लिए मजबूर हो या कोई आदमी जेब में रोटी का टुकड़ा लिए भूख से मर जाए और महाराष्ट्र सरीखे राज्य में घनी आबादी पानी की बूंद के लिए तरस जाए।
घास की रोटी बनाम राफेल
इन परिस्थितियों में जब राफेल की अत्यधिक कीमत पर सवाल के जवाब में रक्षा राज्यमंत्री राव इंद्रजीत सिंह यह कह दें कि जब देश की सीमाएं सुरक्षित होगी और जब हमारा आसमां सुरक्षित होगा, तभी देश विकास कर सकता है। यदि आपके पास सुरक्षा नहीं होगी तो घास की रोटी भी नहीं मिलेगी, तो आसानी से समझा जा सकता है कि सरकार किस मजबूरी मे फंसी है।
फिर भी असल सवाल तो वायुसेना का है, जिसकी वजह से तेजस परियोजना अटकती-भटकती रही है। आगामी एक जुलाई को चार विमानों के साथ वायुसेना में तेजस की पहली स्क्वाड्रान बेंगलूरु स्थित एचएएल परिसर में स्थापित होनी हैै। ऐसे में वायुसेनाध्यक्ष के मुंह से तारीफ का सीधा सा मतलब है कि वायुसेना अब ज्यादा इंतजार करने की स्थिति में नहीं है।
हालांकि राफेल जैसे मीडियम मल्टीरोल कॉम्बेट एयरक्राफ्ट (एमएमआरसी) दुश्मन के इलाके में अंदर तक जाकर मार करने के लिए वायुसेना की महती जरूरत है, लेकिन जैसे जैसे उसके पास लड़ाकू विमानों की कमी होती जा रही है और कुल स्कवाड्रन की संख्या 42 से घटकर 33 से 35 के बीच रह गई है तो तेजस उसकी तात्कालिक जरूरतों को पूरा करने की मजबूरी भी हो सकती है।
इसका मतलब यह नहीं है कि तेजस वायुसेना की कसौटी पर खरा नहीं उतरता, लेकिन मिग श्रेणी के विमानों के बाद सुखोई-30 एमकेआई, मिराज और जगुआर जैसे विमानों के बीच की खाई पूरी करने के लिए तेजस न सिर्फ एक बेहतर नभचर साबित हो सकता है, बल्कि एयर टू ग्राउंड हमलों के लिए सहज उपलब्ध एकमात्र बेहतरीन विकल्प भी है।
तेजस की उपयोगिता यूं भी बढ़ जाती है कि उसके अपग्रेडेड संस्करण भी परीक्षण में खरे उतर चुके हैं। वायुसेना ने अब तक तेजस में कुल 53 तरह की खामियां गिनाई थी और मिड एयर रिफ्यूलिंग जैसी सुविधा से भी इसे लैस कर दिया गया है तो वायुसेना के पास कहने को कुछ बचता नहीं है।
दरअसल, भारत सरकार और भारतीय वायुसेना 'घर का जोगी जोगणा, आण गांव का सिद्धÓ की तर्ज पर शुरू से तेजस की अनदेखी करते रहे हैं। सरकार ने जहां तेजस परियोजना के वित्त पोषण में हाथ खींचे रखे, वहीं वायुसेना के अधिकारी लगातार इसमें मीनमेख (खामियां) निकालते रहे। नतीजन विमान की री-डिजाइन करनी पड़ी और इससे लागत, समय, पैसा और इसके इंडक्शन में देरी हुई सो अलग।
तत्काल जरूरत भी है कारण
भारतीय वायुसेना के लड़ाकू विमानों का बेड़ा बढ़ाने की अहम जरूरत है। हालत यह है कि मिग-21 की विदाई के बाद भारत तो उस जैसे ही किसी विमान की तत्काल जरूरत है। नए विमान खरीदने के बारे में फैसला लेेने में लगातार देरी चिंता का सबब बनी हुई है।
एक की कीमत में छह तेजस
राफेल की अत्यधिक कीमत और सौदे की शर्तों में सत्ता परिवर्तन के साथ हुए बदलाव से भी विमान हासिल होने में देरी लाजिमी है। ऐसे में तेजस पर वायुसेना का भरोसा लौटा तो ताज्जुब नहीं है। वर्ष 2007 में फ्रांस से राफेल विमान खरीदने का फैसला हुआ और कुल 126 राफेल के लिए अनुमानित कीमत 10 से 12 बिलियन डॉलर यानी करीब 48 हजार करोड़ आंकी गई। इसके बाद से लगातार कीमत बढ़ती जा रही है। सरकार फैसला नहीं कर पा रही कि राफेल कितने और किस कीमत पर खरीदे जाएं?
पिछले वर्ष प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की फ्रांस यात्रा के दौरान फ्रांस से 126 की बजाय सिर्फ 36 राफेल 65 हजार करोड़ रुपए में खरीदने का सौदा किया गया, लेकिन प्रत्येक राफेल की कीमत लगभग 1750 करोड़ रुपए पड़ रही है। कीमत इतनी ज्यादा कि इसकी कीमत में वर्तमान में भारतीय वायुसेना की मारक क्षमता की रीढ़ की हड्डी बने सुखोई-30 एमकेआई जैसे दो या छह तेजस विमान खरीदे जा सकते हैं।
अभी यह पता नहीं है कि निगोसिएशन के बाद जब तक सौदा पटेगा, तब तक राफेल की कीमत कहां तक पहुंच जाएगी। फ्रांस की कम्पनी डासॉल्ट साल में अधिकतम 14 राफैल बनाकर दे सकती है, इस हिसाब से आज भी यदि राफेल की पहली खेप भारत को मिल जाए तो सभी 126 विमान तो वर्ष 2030 तक भी वायुसेना को प्राप्त नहीं हो पाएंगे।

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