Wednesday, May 1, 2019

प्रेस की आजादी बनाम हेट कैम्पेन

-सुरेश व्यास
विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस पर जारी सूचकांक ने भारत में पत्रकारिता के समक्ष नए खतरों की ओर इशारा किया है...असहमति की जगह ले रहे हेट कैम्पेन ने अभिव्यक्ति की आजादी के सामने एक नई चुनौती खड़ी की है....



वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स की रैंकिंग में भारत इस बार भी दो पायदान पिछड़ा है...दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में मीडिया की आजादी की रैंकिंग लगातार गिरी है और इस बार भारत की रैंकिंग लुढ़क कर 140वें पायदान तक पहुंच गई है...यानी देश के पत्रकारों के लिए स्थितियां ठीक नहीं है...असहमति अब हेट कैम्पेन सरीखी असहिष्णुता के रूप में तब्दील होती दिख रही है...एक तबका ऐसा भी खड़ा हुआ है जो आलोचना को पचाना तो दूर सहन तक नहीं कर पा रहा...सत्ता के मद में अभिव्यक्ति को दबाने की कोशिश भी सामने आई है...फिर भी देश में राजस्थान पत्रिका जैसे मीडिया समूह आज भी निष्पक्षता के दम पर ऐसे किसी कुत्सित प्रयास का मुकाबला करने के लिए अडिग दिखाई देते हैं...

फिर भी चौथा स्तम्भ
विश्व पत्रकारिता दिवस 3 मई को दुनिया भर में मनाया जाता है...संयुक्त राष्ट्र महासभा में साल 1991 में पारित प्रस्ताव के बाद हर साल 3 मई को मनाया जाने वाला यह दिन भारत के लिए भी खास है...खास इस मायने में भी है कि देश के संविधान में अभिव्यक्ति की आजादी वाले प्रावधानों के संदर्भ में प्रेस भले ही कहीं नहीं दिखता, लेकिन हमारे यहां मीडिया को विधायिका, न्यायपालिका व कार्यपालिका के बाद संविधान के चौथे स्तम्भ के रूप में देखा जाता रहा है...फिर भी देश में मीडिया इंडस्ट्री के विकास के साथ साथ देश के पत्रकारों के सामने खतरे भी बढ़ते जा रहे हैं...हर साल आने वाले वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स की रैंकिंग में भारत लगातार पिछड़ता जा रहा है...इसका आशय यह कत्तई नहीं है कि हमारे यहां मीडिया की ताकत कम हुई है...राजस्थान, मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र जैसे प्रदेशों में भ्रष्टों को कानून के जरिए दुष्कर्म पीड़िता जैसी इम्युनिटी प्रदान करने वाली प्रचंड बहुमत की सरकारों को झुकना भी पड़ा है...



खतरनाक है मर्जी के खिलाफ बोलना
वैश्विक स्तर पर पत्रकारों की सुरक्षा और संरक्षा को लेकर काम करने वाले संगठन रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स ने हाल ही वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स-2019 जारी किया है...इसमें नार्वे जैसा छोटा देश प्रेस की स्वतंत्रता के मामले में अव्वल बना हुआ है तो भारत जैसे दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश की रैंकिंग लगातार गिरती जा रही है.. इस बार 180 देशों के वैश्विक रैंकिंग  इंडेक्स में भारत को 140 वें स्थान पर रखा गया है...जबकि पिछले बार रैंकिंग में हम 138वें पायदान पर थे...यह इस बात का संकेत है कि देश में पत्रकारों के लिए स्थितियां ठीक नहीं है... रिपोर्ट इशारा कर रही है कि एक बड़े तबके की मर्जी के खिलाफ बोलना यहां के पत्रकारों के लिए खतरनाक हो सकता है...पत्रकार संगठित रूप से हेट कैंपेन का शिकार हो रहे हैं...पत्रकारों के खिलाफ हिंसा में आतंकी व नक्सली हमले ही नहीं, पुलिस के साथ भ्रष्ट राजनेताओं व माफिया की ओर से होने वाले हमले भी शामिल हैं...



छोटे देश भी ज्यादा सुरक्षित 
देश में पिछले साल काम के दौरान हिंसा की घटनाओं में 6 पत्रकार मारे गए...इनमें गैर अंग्रेजी मीडिया संगठनों में काम करने वाले पत्रकार ज्यादा हैं...दुनिया भर में पत्रकारों पर हमले का रिकार्ड रखने वाले पेरिस स्थित एनजीओ रिपोर्टर्स सैन फ्रंटियर्स की रिपोर्ट के अनुसार भारत के मुकाबले नार्वे, फिनलैंड, नीदरलैंड, इथोपिया व जांबिया जैसे देशों में भी पत्रकार ज्यादा सुरक्षित हैं...

दस सालों से बढ़ रहा खतरा
विश्व प्रेस सूचकांक में भारत की रैंकिंग लगातार गिर रही है... साल 2010 में भारत रैंकिंग में 122वें स्थान पर था...इसके बाद 2014 तक 140वें स्थान पर रहा... आंकड़े गवाही दे रहे हैं कि किस साल भारत की क्या थी प्रेस की स्वंत्रता के मामले में रैंकिंग और कैसे आती रही इसमें गिरावट...
रैंकिंग भारत में प्रेस की स्वतंत्रता की
वर्ष---रैंकिंग
2019---140
2018---138
2017---136
2016---133
2015---136
2014--- 140

खत्म हो रही सहनशक्ति
आंकड़े बता रहे हैं कि भारत में पत्रकारों के लिए चुनौतियां बढ़ती जा रही है...खासतौर पर उन पत्रकारों के लिए जो सत्ता का सच उजागर करने का जज्बा दिखाते हैं...सच्चाई सहन न कर पाने की प्रवृत्ति का असर पत्रकारिता को चुनौती के रूप में सामने आया है...लेकिन भारत में मीडिया निष्पक्षता के दम पर अब भी हेट कैम्पेन का निडरता से सामना कर रहा है..उस दौर में जब सरकारें मीडिया घरानों पर प्रभुत्व बढ़ाने की कोशिशों में लगी है...ऐसे में क्या उम्मीद करें कि प्रेस की आजादी की रैंकिंग में सुधार के कोई सरकारी प्रयास सामने आएंगे...करेंगे अगले साल के आंकड़ों का इंतजार हिम्मत और जज्बा दिखाते हुए...जय-जय...



Sunday, March 18, 2018

राजस्थान में वसुंधरा मंत्रिमंडल के फेरबदल पर क्यों भयभीत है भाजपा

मंत्रिमंडल विस्तार की चर्चाओं के बीच भाजपा आलाकमान को कोई अदृश्य भय सता रहा हैं कि हाल के उपचुनाव में मिली करारी हार के बाद डेमेज कंट्रोल का यह कदम कहीं भारी न पड़ जाए-

-सुरेश व्यास
जयपुर। राजस्थान में वसुंधरा राजे मंत्रिमंडल के विस्तार की चर्चा तो पिछले करीब एक सप्ताह से चल रही है, लेकिन अभी तक कोई फैसला नहीं हो पाया है। न विस्तार पर कोई  निर्णय हुआ है और न ही राज्य के संगठन में किसी फेरबदल को अंतिम रूप मिला है। इसमें देरी के पीछे किसी न किसी अदृश्य भय को कारण माना जा रहा है। सम्भवतः भाजपा आलाकमान इस बात को लेकर पेशोपेश में है कि हाल के उपचुनाव नतीजों में मिली हार के  बाद मंत्रिमंडल में फेरबदल के जरिए डेमेज कंट्रोल का कदम कहीं भारी तो नहीं पड़ जाएगा।

विधानसभा चुनाव से ठीक दस महीने पहले दो संसदीय व एक विधानसभा चुनाव में हार का सदमा झेल रही भाजपा डेमैज कंट्रोल में तो लगी है, लेकिन  बातें अभी सिरे नहीं चढ़ पा रही। उपचुनाव  के नतीजों ने भाजपा को एंटी इन्कमबेंसी का संदेश तो दिया भी है, लेकिन कार्यकर्ताओं की नाराजगी के कारण अंदरूनी हालात भी
ठीक नहीं है। मंत्री  व भाजपा के कुछ नेता ब्यूरोक्रेसी के निरंकुश होने की बात कर रहे हैं तो कार्यकर्ताओं का कहना है कि मंत्री उन्हें भाव ही नहीं दे रहे।  ऐसे में पिछले कुछ दिनों से नौकरशाही के साथ राज्य मंत्रिमंडल में फेरबदल की चर्चाएं जोरों पर हैं। लेकिन लगता है कि मंत्रिमंडल फेरबदल को लेकर भी भाजपा नेतृत्व को कोई अदृश्य भय सता रहा है।

जातिगत समीकरणों का प्लस-माइनस
राजनीतिक विश्लेषक कहते हैं कि प्रदेश में आगामी नवम्बर-दिसम्बर में  विधानसभा चुनाव होने है, इससे पहले मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के मंत्रिमंडल में फेरबदल एक रिस्क फैक्टर भी है। इसलिए ही शायद भाजपा नेतृत्व कोई फैसला नहीं कर पा रहा। प्रस्तावित मंत्रिमंडल फेरबदल में कुछ मंत्रियों-विधायकों का कद बढ़ाकर जातिगत समीकरण साधना एक बड़ा मकसद हो सकता है, लेकिन जिनका कद घटाया जाना है, उनकी संभावित
नाराजगी ने इस चुनावी साल में भाजपा आलाकमान को असमंजस में डाल रखा है। मसलन, दो उप मुख्यमंत्री बनाने की बात हो रही है। ये विशुद्ध रूप से जातिगत आधार पर तय होना है। इसमें बात सामने आ रही है कि एक ब्राह्मण व एक राजपूत नेता को उप मुख्यमंत्री बनाया जा सकता है। कुछ नाम सामने भी आए हैं, लेकिन इनके प्लस-माइनस ने मामला उलझा रखा है।
संघम् शरणं गच्छामि...
मंत्रिमंडल फेरबदल की चर्चाओं के बीच इन दिनों भारती भवन की ओर भी नेताओं-कार्यकर्ताओं की आवाजाही बढ़ी हुई नजर आ रही है। कारण साफ है कि बिना आरएसएस की मदद के भाजपा की चुनावी वैतरणी पार लगनी मुश्किल है। पिछले चार साल के दौरान आरएसएस के मौजूदा सरकार व प्रदेश संगठन से सम्बन्ध किसी से छिपे हुए नहीं है। मैट्रो रेल परियोजना के लिए मंदिरों की शिफ्टिंग के मुद्दे पर तो संघ के आह्वान पर जयपुर बंद तक हुआ है। संघ की ओर से भाजपा प्रदेश संगठन में संगठन महामंत्री पद पर नियुक्ति में देरी ने भी इन संबंधों को जाहिर ही किया था। प्रेक्षकों की राय में राज्य सरकार पर कथित तौर पर संघ की अनदेखी के आरोप भी लगे, लेकिन इस चुनावी साल में भाजपा संघ की नाराजगी या तटस्थ रुख की रिस्क लेने की स्थिति में नहीं है। ऐसे में भाजपा नेता 'संघम् शरणं गच्छामी' दिखाई दे रहे हैं। मंत्रिमंडल फेरबदल में संघ की राय अहम रहेगी। इससे ही भाजपा कुछ डेमेज कंट्रोल करने की स्थिति में आ सकेगी।
भय का फ्री हैंड फैक्टर
मंत्रिमंडल विस्तार और फेरबदल वैसे तो मुख्यमंत्री का विशेषाधिकार होता है। अब तक मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे अपने हिसाब से ही फेरबदल करने में कामयाब रही है। यहां तक कि प्रदेशाध्यक्ष की नियुक्ति में भी उनकी मर्जी ही चली है, लेकिन अब सवाल खड़ा हो रहा है कि क्या इस बार भी वसुंधरा को ऐसा ही फ्री हैंड मिल सकेगा। यदि ऐसा होता है तो भाजपा आलाकमान को वांछित फायदा मिलने में शंका नजर आ रही है और नहीं होता है तब भी दिक्कत कम नहीं होगी। ऐसे में माना जा रहा है कि 'फ्री हैंड' भी फेरबदल में देरी का एक प्रमुख कारण है।

Saturday, February 3, 2018

अमरीका ने देखा तेजस का तेज

सुरेश व्यास-
भारत में बने सुपरसोनिक लड़ाकू विमान तेजस ने शनिवार को इतिहास रच डाला। दुनिया की सबसे ताकतवर अमरीकी वायुसेना के मुखिया जनरल डेविड गोल्डफिन ने तेजस उड़ाया तो वे इसके तेज में डूबते-उतरते नजर आए। गोल्डफिन ने जोधपुर एयरबेस से तेजस उड़ाया।
                                    
 वे पाकिस्तान की सीमा तक जाकर वापस लौटे। करीब पौन घंटे की ये उड़ान वायुसेना में मिग विमानों की जगह लेने जा रहे तेजस के इतिहास में एक स्वर्णिम अध्याय के रूप में जुड़ गई। 
चकित रह गए गोल्डफिन
सुबह की गुलाबी ठंड...धरती पर सीधी किरणें फेंककर सूर्यनगरी के नाम को सार्थकता प्रदान करते सूर्यदेव के साथ रिश्तों की गर्मजोशी। ये नजारा था पाकिस्तान को कई बार नाकों चने चबवा चुके पश्चिमी सरहद के शक्तिशाली जोधपुर एयर बेस का। 

दुनिया की ताकतवर वायुसेनाओं में शुमार अमरीकी वायुसेना के मुखिया गोल्डफिन ने फ्लाइट गियर पहनकर जोधपुर एयर बेस से स्वदेश निर्मित लड़ाकू विमान तेजस में उड़ान भरी तो इस लड़ाकू विमान की खूबियां देखकर चकित रह गए। 


गोपनीय रहा कार्यक्रमभारत यात्रा पर आए गोल्डफिन वायुसेनाध्यक्ष एयर चीफ मार्शल बीएस धनोआ के साथ बातचीत में वे तेजस से इतना प्रभावित हुए कि उड़ान भरने का कार्यक्रम बन गया। वे अचानक शुक्रवार की रात जोधपुर पहुंचे, लेकिन उनकी यह यात्रा उड़ान तक गोपनीय ही बनी रही।


मिरेकल मशीनअमरीका के खाड़ी युद्ध से लेकर अफगानिस्तान तक एयर ऑपरेशंस का नेतृत्व करने वाले गोल्डफिन की यह उड़ान तेजस के लिए काफी अहम साबित हुई। 

4200 घंटे तक लड़ाकू विमान उड़ाने का अनुभव रखने वाले गोल्डफिन तेजस की खूबियों से बेहद प्रभावित नजर आए। उन्होंने जब इसे मिरेकल मशीन...वैरी स्मूद कहा तो तेजस स्क्वाड्रन के वायुयोद्धाओं के सीने गर्व से फूल गए।


प्रोजेक्ट को मिली परवाजपिछले साल ही भारतीय वायुसेना में शामिल हुए तेजस की स्क्वाड्रन अभी शैशवकाल में है, लेकिन पिछले दिसम्बर में वायुसेना को 83 तेजस विमान खरीदने की मंजूरी मिलने के बाद तीन दशक पुराने प्रोजेक्ट तेजस को परवाज मिली है।


 अब जब अमरीकी वायुसेना प्रमुख ने इसकी खासियतों का अनुभव किया है अब तक गुमनामी में खोये रहे तेजस को नई बुलंदियां मिलने का रास्ता भी खुल गया है।

हर किसी ने की तारीफभारतीय वायुसेना भले ही इस मैक इन इंडिया फाइटर जेट से दूरी बनाती रही हो, लेकिन जिसने भी तेजस को उड़ाया, वो इसकी तारीफ किए बिना नहीं रह सका। पिछले साल नवम्बर में सिंगापुर के रक्षा मंत्री ने भी कलाइकुंडा एयरबेस से तेजस की उड़ान के बाद इसे सर्वश्रेष्ठ बताया था। रक्षा विशेषज्ञों का कहना है कि अमरीकी वायुसेना प्रमुख की तारीफ तेजस को नई बुलंदियां देगी।

Thursday, February 1, 2018

खतरा बढ़ा, रक्षा बजट नहीं


-सुरेश व्यास
देश की उत्तरी व पश्चिमी सीमा पर लगातार खतरा बढ़ने के बावजूद रक्षा बजट में अपेक्षित बढ़ोतरी नहीं होना अचम्भे की बात है। वित्त मंत्री अरुण जेटली ने एक फरवरी को लोकसभा में मोदी सरकार का आखिरी पूर्णकालीक बजट पेश करते हुए रक्षा बजट में 2.95 लाख करोड़ रुपए का प्रावधान किया है। आंकड़े के रूप में यह पिछले बजट अनुमान से करीब 7.81 प्रतिशत ज्यादा बताया गया है, लेकिन सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की नजर से यह सम्भवतः पिछले छह दशक में अब तक का सबसे कम रक्षा बजट है।

कुछ दिन पहले ही रिटायर्ड मेजर जनरल भुवनचंद्र खंडूरी की अध्यक्षता वाली रक्षा मामलों की संसदीय समिति ने रक्षा बजट की नाकाफी पर हैरानी जताई थी। साथ ही सैन्य संस्थानों के संसाधनों की कमी पर ध्यान नहीं दिए जाने को भी प्रमुखता से रेखांकित किया था, लेकिन बजट में जैसे संसदीय समिति की बात को एकतरह से नजर अंदाज ही कर दिया गया। संसदीय समिति ने रक्षा बजट देश की जीडीपी के 3 प्रतिशत के बराबर करने की सिफारिश की थी। जबकि मोदी सरकार में पिछले चार साल से जीडीपी के आधार पर आंकलन में रक्षा बजट लगातार कम होता जा रहा है। इस बार का रक्षा बजट जीडीपी का मात्र 1.57 प्रतिशत है, जिसे 1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद का सबसे कम रक्षा बजट बताया जा रहा है।

जरूरत का आधा भी नहीं
साल 2013-14 के बाद से जीडीपी के मुकाबले रक्षा खर्च लगातार कम हो रहा है। 2013-14 में रक्षा बजट जीडीपी का 1.79 प्रतिशत था जो पिछले साल के बजट में घटकर 1.62 फीसदी हो गया। इस साल के बजट में तो रक्षा के लिए जीडीपी के 1.57 प्रतिशत का ही प्रावधान किया गया है, जबकि जरूरत के हिसाब से यह जीडीपी का कम से कम ढाई-तीन प्रतिशत तो होना ही चाहिए।


बड़ी सेना, छोटा बजट
भारत की सेना दुनिया की चौथी सबसे बड़ी सेना है, लेकिन हमारे यहां रक्षा बजट में जीडीपी का हिस्सा पाकिस्तान से भी कम है। रक्षा पर इजरायल सबसे ज्यादा जीडीपी का 5.2 फीसदी हिस्सा खर्च करता है, जबकि रूस में यह आंकड़ा 4.5 प्रतिशत, अमरीका में 4, चीन में 2.5 और पाकिस्तान रक्षा पर अपनी जीडीपी का 3.5 प्रतिशत हिस्सा खर्च करता है।

पहले से नहीं हैं पूरे संसाधन
रक्षा विशेषज्ञों का कहना है कि देश के पश्चिम व उत्तर-पूर्वी मोर्चों पर लगातार बढ़ रहे खतरे के मद्देनजर भी रक्षा बजट में जीडीपी के कम से कम ढाई फीसदी हिस्से की दरकार है, लेकिन सरकार का इस ओर ध्यान नहीं देना अचम्भित करने वाला है। आज देश की तीनों सेनाओं के पास आसन खतरे के मुकाबले संसाधनों की कमी को तो संसदीय मामलों की समिति तक स्वीकार कर चुकी है। हालात पर नजर डालें तो थल सेना के पास असॉल्ट राइफल्स, मशीन गन्स, बुलैट प्रूफ जैकेट, हेलमेट और तोपों तक की कमी है। वायुसेना लड़ाकू विमानों की कमी से जूझ रही है। नतीजन 41.5 स्क्वाड्रन की जगह महज 33-34 स्क्वाड्रन से काम चलाया जा रहा है। नौसेना के पास युद्धपोत व पनडुब्बियों की कमी किसी से छिपी नहीं है। वायुसेना और नौसेना के पास मौजूदा संसाधन बीस से तीस साल पुराने हैं। इन्हें लगातार अपडेट करके काम चलाया जा रहा है। ऐसे में रक्षा बजट में वांछित बढ़ोतरी समय की मांग भी है।


आधुनिकीकरण के लिए नाकाफी
वर्ष 2018-19 के आम बजट में रक्षा के लिए 2,95,511.41 करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया है। रक्षा बजट में सेनाओं के आधुनिकीकरण के लिए पूंजीगत व्यय मद में खर्च किया जाता है, लेकिन इसमें महज 99,947 करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया है। विशेषज्ञों के अनुसार जिस तरह से सैन्य साजो सामान की कीमतों में बढ़ोतरी हो रही है, उस हिसाब से यह राशि नाकाफी है। बजट में हालांकि डिफेंस इंडस्ट्री कोरिडोर और रक्षा उत्पादन नीति बनाने की घोषणा भी की गई है, लेकिन इसका रोडमैप नहीं होने से सवाल उठ रहा है कि इसे लागू कब और कैसे किया जाएगा।

Saturday, January 6, 2018

यूं पकड़ में आया चारा घोटाला

सबसे पहले पश्चिम सिंहभूम जिले में पकड़ में आया चार घोटाला एकीकृत बिहार के कई अन्य जिलों में भी सामने आया। कड़ी से कड़ी जुड़ती गई और घोटाले ने बिहार में राजनीतिक भूचाल ला दिया।



राष्ट्रीय जनता दल के मुखिया और बिहार ही नहीं देश के फायरब्रांड नेता लालू प्रसाद यादव को जिस चारा घोटाले में रांची की सीबीआई मामलात की विशेष अदालत ने साढ़े तीन साल की सजा सुनाई है, उस मामले के सामने आने की कहानी भी बड़ी रोचक है। अविभाजित बिहार के इस बहुचर्चित घोटाले का पर्दाफाश पश्चिम सिंहभूम जिले से हुआ था। घोटाले का पर्दाफाश करने वाले भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी अमित खरे 1996 में पश्चिम सिंहभूम जिले में उपायुक्त के पद पर तैनात हुए ही थे। उन्होंने उपायुक्त का पदभार संभालने के बाद चाईबासा कोषागार से फर्जी निकासी की तह में जाकर मामले का खुलासा किया था।

चारा घोटाला उजागर करने वाले आईएएस अधिकारी अमित खरे इन दिनों झारखंड के विकास आयुक्त हैं

खुलती चलती गई परतें 

खरे ने 27 जनवरी 1996 की सुबह ठिठुराती सर्दी में ब्रिटिश जमाने में बने भवन के एक छोटे से कोने में स्थित ट्रेजरी, पशुपालन विभाग के दफ्तर व पशुओं के फार्म हाउस पर छापा मारा। उन्होंने बिलों को जांचना शुरू किया, तो वे चौंक गये। सभी बिलों में 99 लाख रुपए की राशि ही भरी हुई थी। सभी बिलों पर एक ही आपूर्तिकर्त्ता का उल्लेख देख वे चौंक गए। खरे ने जिला पशुपालन अधिकारी व विभाग के कर्मचारियों को पूछताछ के लिए बुलाया, लेकिन सभी कर्मचारी भाग गए। इससे उनका संदेह गहरा गया। जब उन्होंने कैश बुक, बैंक ड्राफ्ट और दस्तावेज सम्भाले तो मामले की परतें खुलती चली गई। उन्होंने पशुपालन विभाग और उससे जुड़े सभी दफ्तरों को सील करवा दिया। बिलों के भुगतान पर रोक लगा दी। सभी दस्तावेज पुलिस थानों में सुरक्षित रखवा दिए, ताकि रिकॉर्ड्स से छेड़छाड़ न हो। सिंहभूम जैसा घोटाला एकीकृत बिहार के कई जिलों में सामने आया। कड़ी से कड़ी जुड़ती गई और घोटाले ने बिहार में राजनीतिक भूचाल ला दिया। फर्जीवाड़ा उजागर करने वाले आईएएस अमित खरे अभी झारखंड में विकास आयुक्त के पद पर कार्यरत हैं।

ऐसे हुई सीबीआई जांच
11 मार्च 1997 को पटना उच्च न्यायालय ने सीबीआई को चार माह के भीतर चारा घोटाले की जांच के निर्देश दिए थे। 19 मार्च को 1997 को उच्चतम न्यायालय ने पटना उच्च न्यायालय के न्यायाधीश एसएन झा और एसजे मुखोपाध्याय की खंडपीठ को सीबीआई जांच की निगरानी करने का हुकम दिया। घोटाले में उस वक्त मुख्यमंत्री रहे लालू यादव समेत 16 लोगों को कारावास की सजा सुनाई गई है। ऐसे दो अन्य मामलों में लालू के खिलाफ सीबीआई मामलों की अदालत में केस विचाराधीन है।

सजा सुनने के बाद रांची की सीबीआई अदालत से बाहर आते लालू यादव

सातवीं बार जेल गए हैं लालू
चारा घोटाले से जुड़े विभिन्न मामलों में लालू यादव 7वीं बार जेल गए हैं। सबसे पहले 30 जुलाई 1997 को वे जेल गए और 135 दिन अंदर रहे। इसके बाद 28 अक्टूबर 1998 को 73 दिनों के लिए, तीसरी बार पांच अप्रैल 2000 को 11 दिनों के लिए, चौथी बार 28 नवंबर 2000 को एक दिन के लिए, पांचवीं बार 26 नवम्बर को 23 दिनों के लिए, छठी बार 3 अक्टूबर 2014 को 70 दिनों के लिए जेल गए। सातवीं बार वे 23 दिसंबर 2017 से जेल में हैं।

मुसीबत भरी है जनवरी लालू के लिए
लालू के लिए जनवरी का महीना मुसीबत भरा है। इसी महीने के अंत तक चारा घोटाले से जुड़े दो अन्य मामलों में  भी सीबीआई का फैसला आना है। जबकि एक अन्य मामले में आगामी मार्च में फैसला आएगा। इन सभी मामलों में लालू आरोपी है।

Friday, December 29, 2017

जब एक ‘बहादुर’ पड़ा था दुश्मन के लाव-लश्कर पर भारी

सुरेश व्यास
एक बहादुर की गर्जना विदा होते साल 2017 के साथ ही शान के साथ शांत हो गई। ये वो बहादुर था, जो ऊंची पहाड़ियों पर बैठे दुश्मन और उसके लाव-लश्कर पर अकेला ही भारी पड़ा था। ‘बहादुर’ की गर्जना भर से दुश्मन को दुम दबाकर भागना पड़ा।

जी हां, हम बात कर रहे हैं भारतीय वायुसेना के लड़ाकू विमान मिग-27 की, जिसकी अचूक मारक क्षमता ने भारत में उसे ‘बहादुर’ नाम से ख्याति दिलाई और यही बहादुर नाटो सेनाओं के लिए ‘फ्लोगर’ यानी सफाया करने वाला अथवा कोड़े मारने वाला कहलाया। 

भारतीय वायुसेना में रूस निर्मित यह लड़ाकू विमान 1980 के दशक में शामिल हुआ था, लेकिन इसका असली इस्तेमाल 1999 में हुए भारत-पाकिस्तान के करगिल युद्ध में सामने आया। इस युद्ध में वायुसेना के ‘ऑपरेशन सफेद सागर’ में मिग-27 ने दुर्गम पहाड़ियों के बीच उड़ान भरकर दुश्मन के ठिकानों, सामग्री डिपो व सप्लाई मार्ग को नैस्तनाबूद कर दिया।
यूं ही नहीं कहलाए फ्लोगर
मिग यानी मिकोयान-गुरेविच विमान भारतीय वायुसेना की अग्रिम पंक्ति के लड़ाकू विमान रहे हैं। हालांकि दुर्घटनाओं के कारण इन पर सवाल भी उठे और कई बार मिग विमानों को उड़न ताबूत तक कहा गया, लेकिन ये वास्तव में तकनीकी रूप से सक्षम नहीं होते तो न इन्हें नाटो सेनाएं फ्लोगर (सफाया करने वाला) मानती और न ही ये वायुसेना में बहादुर के नाम से प्रतिष्ठापित होते।
मजबूत इंजन, अचूक निशाना
शक्तिशाली इंजन ने मिग-27 को एक खास तरह का लड़ाकू विमान बनाया। इन विमानों में लगे ऑटोमेटिक फ्लाइंग कंट्रोल सिस्टम, अटैक इंडीकेटर्स और इन-बिल्ट लेजर गाइडेड सिस्टम के कारण बहादुर को दुनिया का सशक्त एयर टू ग्राउंड अटैक फाइटर जेट माना गया। देश में विभिन्न मौकों पर इन विमानों ने अपनी क्षमता को साबित भी किया। करगिल युद्ध इसका प्रमुख उदाहरण माना जा सकता है।
हासिमारा में आखिरी उड़ान
वायुसेना की लगभग तीन दशक की सेवा के बाद मिग-27 उम्रदराज होकर विदा हो रहे हैं। पश्चिम बंगाल के हासिमोरा एयरबेस से मिग-27 ने आखिरी उड़ान भरी। 

मिग-21 विमानों को चरणबद्ध तरीके से वायुसेना के लड़ाकू विमान बेड़े से विदा किया जा रहा है। अब भी देश के विभिन्न अग्रिम मोर्चों पर अपग्रेडेड मिग-27 गर्जना कर रहे हैं और अगले डेढ़ दो साल में पूरी तरह वायुसेना से विदा हो जाएंगे।
अब भी चालीस
दो साल पहले तक वायुसेना के बेड़े में अपग्रेडेड समेत 87 मिग-27 विमान थे। अवधि पूरी होने के कारण इन्हें फेज आउट किए जाने के बाद अब भी लगभग 40 मिग-27 वायुसेना के पास हैं। इन्हें धीरे धीरे सेवा से हटा लिया जाएगा, लेकिन देश के प्रमुख शहरों में इनकी डम्मी मिग-27 की गौरव गाथा को जीवंत बनाए रखेगी।

Wednesday, December 27, 2017

गुजरात के बाद गलफांस बने राजस्थान के उप चुनाव

भाजपा मानकर चल रही थी कि गुजरात में उसे अपार बहुमत मिल जाएगा और वह उसका फायदा राजस्थान के उपचुनाव में भी लेगी। लेकिन अब उलटा हो चुका है।


-सुरेश व्यास
जयपुर. गुजरात चुनावों के नतीजों के बाद राजस्थान में होने वाले दो संसदीय व एक विधानसभा क्षेत्र के उप चुनाव सत्ताधारी भाजपा के लिए गलफांस बन गए हैं। भाजपा को सरकार के प्रति असंतोष ही नहीं,बल्कि जातिगत समीकरणों ने भी उलझन में डाल रखा है। कांग्रेस प्रत्याशी चयन के मामले में भाजपा को मानसिक दबाव में पहले ही ला चुकी है। वहीं खुद, भाजपा को स्थानीय स्तर पर नेताओं की खींचतान ने परेशान कर रखा है।
राजस्थान में अलवर व अजमेर संसदीय क्षेत्रों में सांसद महंत चांदनाथ और सांवरलाल जाट तथा भीलवाड़ा जिले की मांडलगढ़ विधानसभा सीट पर भाजपा विधायक कीर्तिकुमारी के निधन के कारण उपचुनाव होने हैं। हालांकि चुनाव आयोग ने इन उपचुनावों की तारीख अभी घोषित नहीं की है, लेकिन आयोग के सामने फरवरी तक इन तीनों सीटों पर चुनाव करवाने की संवैधानिक मजबूरी है। ऐसे में माना जा रहा है कि आयोग कभी भी इन तीनों क्षेत्रों में उप चुनाव की घोषणा कर सकता है।
चुनाव आयोग हालांकि अन्य राज्यों में हुए उपचुनावों के साथ ही राजस्थान के तीनों क्षेत्रों की तारीख भी घोषित कर सकता था,  लेकिन राजनीतिक पंडितों का कहना है कि इसमें भी गुजरात विधानसभा चुनाव की तारीखों में देरी की तरह ही कुछ हुआ है। भाजपा मानकर चल रही थी कि गुजरात में उसे अपार बहुमत मिल जाएगा और वह उसका फायदा राजस्थान के उपचुनाव में भी लेगी। लेकिन अब उलटा हो चुका है।

अलवर का अड़ंगा
बदले हुए सियासी समीकरणों में भाजपा के लिए तारीखों की घोषणा से पहले प्रत्याशी चयन भी एक बड़ी मुसीबत है। अलवर में कांग्रेस पहले ही भाजपा के नहले पर दहला मार गई। कांग्रेस ने डॉ. कर्णसिंह यादव को अपना प्रत्याशी घोषित कर दिया। उन्हें पूर्व केंद्रीय मंत्री और कांग्रेसाध्यक्ष राहुल गांधी के नजदीकी जाने वाले पूर्व राजपरिवार के सदस्य भंवर जितेंद्र सिंह का समर्थन भी है। जबकि भाजपा किसी यादव प्रत्याशी की खोज में ही रह गई। भाजपा हालांकि श्रम मंत्री जसवंत यादव को सामने उतार सकती है, लेकिन उसके सामने वोटों के बंटवारे के खतरे के साथ साथ सांसद रहे स्व. चांदनाथ के समर्थकों की नाराजगी का भय भी है। भाजपा अलवर जिले में पहले से अल्पसंख्यकों के निशाने पर है। ऐसे में यादव व अल्पसंख्यक मतों की नाराजगी ने उसे उलझा रखा है। रही सही कसर, उसके बड़बोले विधायक ज्ञानदेव आहूजा के नित नए सामने आ रहे विवादित बयान पूरी कर रहे हैं।
अजमेर में अजीब दिक्कत
इसी तरह अजमेर संसदीय क्षेत्र में भाजपा असमंजस में है। उसे दिक्कत है कि पूर्व सांसद स्व. सांवरलाल जाट के परिवार को टिकट दें तो परेशानी और न दें तो परेशानी। भाजपा जाट मतों के सहारे इस सीट को जीतना चाहती है, लेकिन स्व. सांवरलाल जाट के परिवार को टिकट देने से भी उसके सामने जाट वोट बंटने का खतरा है और न देने पर भी यह खतरा खत्म नहीं होता। कांग्रेस ब्राह्मण के साथ जाट प्रत्याशी पर भी दाव खेलने की फिराक में है, लेकिन वह पहले भाजपा का इंतजार कर रही है। कांग्रेस इस भरोसे भी है कि किसान महापंचायत ने अजमेर में अपना निर्दलीय प्रत्याशी उतारने की घोषणा कर दी है तो उसे इसका फायदा भाजपा के वोटों में बंटवारे से होगा। ऐसे में वह तो निश्चिंत है, लेकिन भाजपा के माथे से चिंता की सलवटें दूर होने का नाम नहीं ले रही।
मांडलगढ़ की मझधार
रहा सवाल भीलवाड़ा की मांडलगढ़ विधानसभा सीट का तो यहां भी भाजपा ही ज्यादा परेशानी में है। भाजपा को इस सीट पर अपना कब्जा बरकरार रखने की चिंता है। कांग्रेस के पास तो यहां खोने के लिए कुछ है नहीं, लेकिन क्षेत्र के जातिगत समीकरणों ने कांग्रेस नेताओं की बांछें खिला रखी है। इस क्षेत्र से राजपूत मतदाता हालांकि काफी प्रभाव रखते हैं, लेकिन ब्राह्मण मतदाता भी निर्णायक भूमिका में रहते हैं। गैंगस्टर आनंदपाल एनकाउंटर मामले के बाद से राजपूत समाज में भाजपा के प्रति नाराजगी ने भाजपा को पहली ही चिंता में डाल रखा है। ऐसे में कांग्रेस की कोशिश इस नाराजगी को भुनाने के साथ ब्राह्मण पर दाव खेलने की है। क्षेत्र में गुर्जर मतदाता भी बड़ी संख्या में है। वे आरक्षण के मुद्दे पर अनमने हैं। इसका खामियाजा भी भाजपा को भुगतना पड़ सकता है। कांग्रेस ने इसके लिए पहले ही अपने विधायक धीरज गुर्जर को धंधे लगा रखा है। ब्राह्मण मतदाताओं के लिए कांग्रेस ने अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के महासचिव डॉ. सीपी जोशी को मोर्चा सम्भलाया है।


चिंता विधानसभा चुनाव की

राजस्थान के तीनों उप चुनाव न सिर्फ संसद, बल्कि विधानसभा के लिए भी अहम है। अभी राजस्थान की सभी 25 सीटों पर भाजपा का कब्जा है। भाजपा इसे बरकरार रखना चाहती है। इसका असर प्रदेश में आगामी विधानसभा चुनावों पर भी पड़ेगा। प्रदेश की भाजपा सरकार के लिए यह चुनावी साल है। दिसम्बर 2018 में यहां विधानसभा चुनाव होने हैं, लेकिन भाजपा अभी से राज्य सरकार के प्रति पनप रहे  असंतोष से चिंता में डूबी है। फिर जातिगत समीकरण भी उसके पक्ष में नजर नहीं आ रहे। बावजूद इसके भाजपा उपचुनावों के जरिए अपना अपर हैंड रखने की फिराक में है, ताकि विधानसभा चुनावों के दौरान मानसिक तनाव से मुक्त रहे। भाजपा की परेशानी है कि मोदी मैजिक उतर रहा है। प्रदेश में हुए स्थानीय निकाय व पंचायत चुनावों में कांग्रेस का मत प्रतिशत बढ़ा है। हाल ही निकाय  व पंचायतों के उपचुनाव में भी कांग्रेस ने भाजपा की जमीन खिसकाई है।