Monday, October 9, 2017

Death or Dignity

सवाल सम्मान के साथ मौत का

-सुरेश व्यास

भारत के उच्चतम न्यायालय ने हाल ही एक याचिका पर केंद्र सरकार से फांसी की सजा का विकल्प ढूंढने का निर्देश दिया है। इसके साथ ही दुनिया भर में मृत्युदंड के बर्बर तरीकों और मृत्यु दंड समाप्त किए जाने की बहस को नई गति मिल गई है। हालांकि भारत में मृत्यु दंड बिरले मामलों (रेयरेस्ट ऑफ द रेयर) में ही दिया जाता है, लेकिन याचिका में उठाया गया यह सवाल कि फांसी लगाकर मृत्यु दंड देना क्या भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन नहीं है, जो देश के प्रत्येक नागरिक को सम्मानपूर्वक जीवन जीने की आजादी प्रदान करता है, नई बहस शुरू कर चुका है।

प्रधान न्यायाधीश की अगुवाई वाली पीठ ने सरकार से हालांकि इस सवाल पर जबाव मांगा है, लेकिन दो सवाल फिर भी कायम है कि मृत्यु दंड के लिए फांसी का विकल्प क्या हो, जिसमें फांसी की सजा वाले कैदी को बिना दर्द के मौत की नींद सुलाया जा सके और दूसरा यह कि क्या पूरी तरह ही समाप्त नहीं कर दिया जाना चाहिए।

सुप्रीम कोर्ट के वकील और याचिकाकर्ता ऋषि मल्होत्रा का कहना है कि संविधान का अनुच्छेद 21 न सिर्फ व्यक्ति को सम्मानपूर्वक जीने का अधिकार प्रदान करता है, बल्कि मृत्यु दंड प्राप्त करने वाले कैदी की सम्मानजनक मौत का प्रावधान भी करता है, ताकि उसकी मृत्यु ज्यादा दर्दनाक न हो। सरकार क्या जवाब देती है और सुप्रीम कोर्ट इस पर क्या व्यवस्था देता है, यह तो भविष्य बताएगा, लेकिन इस याचिका ने यह बहस जरूर छेड़ दी है कि सीआरपीसी की धारा 354 (5) में बदलाव होना चाहिए। इस धारा में मृत्युदंड की सजा पाए व्यक्ति को गर्दन में फंदा लगाकर सांस उखड़ने तक लटकाए जाने का प्रावधान किया गया है।

विधि आयोग हालांकि अपनी 35वीं और अक्टूबर 2013 में दी गई अपनी रिपोर्टों में फांसी की सजा और इसकी बर्बरता पर सवाल उठा चुका है। विधि आयोग की 187वीं रिपोर्ट में तो बाकायदा फांसी की सजा की बजाय लैथल इंजेक्शन के जरिए मृत्युदंड कारित करने की सिफारिश भी की गई है। अब चूंकि सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को फांसी के विकल्प सुझाने का निर्देश दिया है तो उम्मीद की जानी चाहिए की विधि आयोग की रिपोर्ट से भी सरकार धूल तो झाड़ेगी ही।

दर्दनाक है फांसी की सजा
देश में हालांकि फांसी की सजा बहुत ही विरले मामलों में देने का प्रावधान है, लेकिन फांसी पर लटकाए जाने की प्रक्रिया बड़ी दर्दनाक है। इसका असर न सिर्फ फांस पर चढ़ने वाले व्यक्ति पर नजर आता है, बल्कि सजा को लागू करने वाले अफसरों पर इसका मानसिक प्रभाव तो पड़ता ही है। मसलन जिसे फांसी पर चढ़ाया जाना है, पुलिस व जेल के अधिकारी इसकी तैयारी शुरू करते ही कैदी मानसिक दबाव में आ जाता है। उसका बाकायदा लम्बाई चौड़ाई का नाप लिया जाता है। वजन किया जाता है। उसके हिसाब से रस्सी की व्यवस्था होती है। फिर फांसी के निर्धारित समय से कई घंटे पहले तैयारी हो जाती है। आखिर में जब व्यक्ति को फंदे पर लटका दिया जाता है तो जब तक उसकी मृत्यु नहीं हो जाती वह फंदे पर लटका रहता है। उसकी आंखें तक बाहर आ जाती है। यह प्रक्रिया इतनी दर्दनाक है कि कई बार तो इसे लागू करवाने वाले अफसर कई दिनों तक सदमे से बाहर नहीं आ पाते। मुंम्बई पर आतंकी हमलों के गुनहगार अजमल कसाब को फांसी पर चढ़वाने वाली महिला आईपीएस अफसर ने सेवानिवृत्ति के बाद अपने इंटरव्यू में इस दर्द को बयां किया है।

उठती रही है फांसी खत्म करने की मांग
दुनिया भर में मानवाधिकार संगठन फांसी की सजा कॉ ही खत्म करने की मांग लम्बे अरसे से कर रहे हैं। इसका नतीजा है कि विश्व के लगभग 140 देशों में तो फांसी की सजा खत्म ही की जा चुकी है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी अपनी रिपोर्ट में मृत्यु दंड की सजा को खत्म करने का सुझाव विभिन्न रिपोर्टों में दिया है। कई देश तो हालांकि मृत्युदंड के मानवीय तरीकों पर काम भी कर रहे हैं, लेकिन दुनिया जब अरब देशों में आज भी मृत्युदंड के बर्बर तरीकों को देखती है तो सहम उठती है।

व्यावहारिक रहा है अदालतों का नजरिया
भारत की न्याय व्यवस्था ने समय समय पर संवैधानिक प्रावधानों की व्याख्या करते हुए कई अहम फैसले किए हैं। इनमें सबसे बड़ा फैसला भारतीय दंड संहिता की धारा 303 को खत्म करने का है। मिट्ठू बनाम भारत संघ के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने इस धारा को खत्म किया था। इसमें प्रावधान था कि यदि कोई उम्रकैद की सजा काट रहा है और इस दौरान उसने कोई जंघन्य अपराध कर दिया तो उसे फांसी की सजा ही होगी। सुप्रीम कोर्ट ने इस धारा को ही असंवैधानिक करार दे दिया। इसी तरह मृत्युदंड के मामले में भी सुप्रीम कोर्ट का नजरिया मानवीय ही रहा है। बच्चन सिंह बनाम पंजाब के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि फांसी की सजा बिरले (रेयरेस्ट ऑफ द रेयर) मामले में ही दी जानी चाहिए।

भारत में फांसी कम ही
सुप्रीम कोर्ट के फांसी की सजा बिरले मामलों में ही देने के निर्देशों का ही असर है कि देश में पिछले तीन दशकों में बहुत कम लोगों को फांसी की सजा सुनाई गई है और फांसी की सजा लागू करने के भी गिनती के मामले ही सामने आए हैं। देश में सम्भवतः आखिरी बार फांसी की सजा जुलाई 2015 मुंबई बम धमाकों के आरोपी याकूब मेनन को हुई थी। इससे पहले फरवरी 2013 में अफजल गुरू व नवम्बर 2012 में मुंबई में आतंकी हमले के गुनहगार अजमल कसाब को फांसी पर लटाया गया था। कसाब से पहले 2004 में धनंजय चटर्जी को फांसी पर लटकाया गया था। जहां तक फांसी से मृत्युदंड का सवाल है दुनिया में आज भी इरान और अन्य अरब देशों में यह प्रथा ज्यादा प्रचलन में है। इरान में तो एक साल में औसतन तीन सौ से ज्यादा लोगों को फांसी पर चढ़ा दिया जाता है।

इंजेक्शन है बेहकर विकल्प
अब सवाल है कि फांसी तो मृत्यु दंड का बेहतर विकल्प क्या हो। इसके लिए विधि आयोग ने अपनी रिपोर्ट में जिस लैथल इंजेक्शन का सुझाव दिया है, वह तरीका दुनिया के कई देशों में अपनाया भी जा रहा है। इसके तहत व्यक्ति को बेहोश करने वाली दवा की हाई डोड इंजेक्शन के जरिए लगाई जाती है और आदमी धीरे धीरे मौत के आदेश में समा जाता है। अमरीका के ऑकहामा स्टेट में 1977 में सबसे पहले मृत्यु दंड का यह तरीका अपनाया गया था, जिसे कई अन्य़ देशों ने भी बाद में मान्यता दी है।


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