Friday, December 8, 2017

क्या ये है ट्रंप का ‘आत्मघाती’ कदम


वर्ष 2001 से या यूं कहें कि इससे पहले ही अमरीका दुनिया भर में तेजी से बढ़ रहे इस्लामी आतंकवाद के निशाने पर है। 26 सितम्बर को न्यूयार्क के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर अलकायदा के हमले के बाद से अमरीका आतंकियों के निशाने पर है।




-सुरेश व्यास
येरूशलम को इजरायल की राजधानी के रूप में मान्यता देने के प्रस्ताव पर जिस अमरीका के राष्ट्रपति पिछले करीब ढाई दशक से परहेज करते रहे, उस पर मौजूदा अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने एक झटके में हस्ताक्षर कर दिए। येरुशलम को इजरायल की राजधानी के रूप में मान्यता देने के साथ ही उन्होंने अमरीकी दूतावास को तेल अवीव से स्थानान्तरित करने के आदेश भी कर दिए। इस फैसले न सिर्फ अमरीका बल्कि दुनिया भर में सवाल उठ रहे हैं। लोग इस बात से हैरत में है कि आखिर ट्रम्प ने ऐसा फैसला क्यों किया?  वे आखिर चाहते क्या हैं?
बढ़ेगा इस्लामी आतंक का खतरा
वर्ष 2001 से या यूं कहें कि इससे पहले ही अमरीका दुनिया भर में तेजी से बढ़ रहे इस्लामी आतंकवाद के निशाने पर है। 26 सितम्बर को न्यूयार्क के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर अलकायदा के हमले के बाद से अमरीका आतंकियों के निशाने पर है। इस बात से अमरीका के अब तक के राष्ट्रपति वाकिफ रहे हैं और उन्होंने अमरीका और अमरीकी नागरिकों की सुरक्षा को सदैव प्राथमिकता दी है। यही वजह रही कि अमरीकी कांग्रेस में 1995 में पारित उस प्रस्ताव से अमरीका का नेतृत्व आज तक किनारा करता रहा, जिसमें येरूशलम को इजरायल की राजधानी के रूप में मान्यता देने का उल्लेख है। इसके पीछे साफ तौर पर सुरक्षा कारणों को गिनाया गया और कहा गया कि ये प्रस्ताव लागू करना अमरीका की सुरक्षा के लिए घातक सिद्ध हो सकता है। फिर ट्रंप ने क्यों इसे दरकिनार कर दिया? क्या ट्रंप को अमरीका और अमरीकी नागरिकों की सुरक्षा की चिंता नहीं है? क्या वे इस बारे में अपने चुनावी वादे को पूरा नहीं करते तो उनकी सियासी जिंदगी में कोई तूफान आ जाता? ये वो सवाल है जो अमरीकी जनता उनके सामने उठा सकती है।
अनुभवहीनता का असर
इस फैसले के पीछे भले ही कोई राजनीतिक स्वार्थ नीहित न हो, लेकिन ये सवाल उठना लाजिमी है कि ट्रंप के इस फैसले ने उनकी राजनीतिक अनुभवहीनता को ही साबित किया है। तभी तो न दुनिया भर में उनके इस फैसले के किरकिरी हो रही है। ट्रंप के फैसले से अरब और मुस्लिम देश तो नाराज हुए ही हैं और तुर्की ने तो इसे नरक का रास्ता खोलने तक की संज्ञा दे डाली है। साथ ही ये आशंका भी खड़ी होने लगी है कि ट्रंप के इस फैसले ने अमरीका में इस्लामी आतंकवाद के खतरे को फिर बढ़ा दिया है।
अब तक खानी पड़ी है मुंह की
दरअसल, येरुशलम शुरू से इजरायल और फलीस्तीन के बीच विवाद की अहम कड़ी रहा है। इजरायल की स्थापना के बाद से दुनिया के पहले या यूं कहें कि एक मात्र यहूदी देश इजरायल ने येरुशलम को अपनी राजधानी बनाने की कोशिश छोड़ी नहीं है, लेकिन इस मुद्दे पर कभी भी उसे दुनिया के अन्य देशों का समर्थन नहीं मिला। इसके बाद इजरायल ने 1980 में आधिकारिक तौर पर येरुशलम को अपनी राजधानी घोषित कर दिया, लेकिन दुनिया के किसी भी देश ने इसे मंजूरी नहीं दी। यही कारण है कि आज इजरालय के तेल अवीव शहर में ही अमरीका समेत अन्य देशों के 86 दूतावास हैं। कोई भी देश येरुशलम में अपना दूतावास ले जाने को तैयार नहीं है।

सुरक्षा परिषद भी रही है खिलाफ
इजरायल और फलीस्तीन के बीच संघर्ष की अहम कड़ी भी येरूशलम ही है। इजरायल ने 1967 में फलीस्तीन के साथ छह दिन की लड़ाई के बाद पूर्वी येरूशलम पर कब्जा किया था। इसकी सुरक्षा परिषद ने भी आलोचना की। दुनिया भर में इजरालय की निंदा की गई, लेकिन इजरायल ने जैसे येरूशलम को अपनी मूंछ का सवाल बना रखा है। पहली बार उसे इस मुद्दे पर अमरीका जैसे देश का प्रत्यक्ष और परोक्ष समर्थन मिला है, जबकि दुनिया सुरक्षा परिषद के अहम सदस्य के रूप में अमरीका को एक अच्छे मध्यस्थ के रूप में देखती आई है। यही वजह है कि फ्रांस, तुर्की, अरब देशों और यूरोपियन यूनियन ने ट्रंप के फैसले की आलोचना की है और इस निर्णय को गैर जरूरी व तनाव पैदा करने वाला करार दिया है। और तो और सुरक्षा परिषद के 15 में से 8 सदस्यों ने इस मुद्दे पर बैठक बुलाने की मांग तक कर डाली है।
अमरीका पर पड़ेगा प्रतिकूल असर
वैश्विक मामलों के जानकार कहते हैं कि ट्रम्प के इस फैसले से न सिर्फ अमरीकी को आतंकी चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है, बल्कि अरब देशों की मुस्लिम आबादी भी इस फैसले के खिलाफ खड़ी होती नजर आएगी। ट्रंप के इस फैसले ने साबित किया है कि वे राजनीतिक रूप से अनुभवहीन होने के कारण वैश्विक मामलों में अमरीका की स्थिति पर प्रतिकूल प्रभाव पड सकता है। ट्रंप की विदेशियों के प्रति वीजा नीति और अमरीकी फर्स्ट की पोलिसी से उन्हें लोकप्रियता तो हासिल हो सकती है, लेकिन इसके आर्थिक व राजनीतिक नुकसान अमरीका को उठाने पड़ सकते हैं।
मोदी सरकार की तटस्थता ही ठीक
येरूशलम के मामले में भारत के रवैये का जहां तक सवाल है, विदेश मंत्रालय ने स्पष्ट कहा है कि भारत की फलीस्तीन के प्रति नीति को कोई तीसरा देश प्रभावित नहीं कर सकता, लेकिन राजनीतिक रूप से साफ है कि नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद भारत ने इजरायल के प्रति तटस्थ रवैया अपनाया है, जबकि इससे पहले भारत हमेशा से फलीस्तीन का समर्थक ही रहा है। भारत के लिए हालांकि ट्रंप के फैसले का नफा-नुकसान अभी नहीं सोचा जा सकता, लेकिन जिस तरह से इजरायल के प्रति भारत का रवैया व्यावसायिक तौर पर ही सही लचीला होता जा रहा है, उसे लेकर आशंका तो खड़ी हो ही सकती हैष। भारत ने पाकिस्तान को दबाए रखने में अरब देशों की मदद की गरज से फलीस्तीन को समर्थन दिया है और इसका फायदा भी देखने को मिला है। ऐसे में माना जाना चाहिए कि भारत ट्रंप के फैसले पर तटस्थ भले ही रह जाए, लेकिन खुलकर साथ आने की स्थिति में तो आज भी नहीं है।

इसलिए भी अहम है येरूशलम
येरूशलम के प्रति न सिर्फ यहूदियों बल्कि मुसलमानों और इसाइयों की भी श्रद्धा है। तीनों ही जातियों के लोगों के लिए धार्मिक रूप से भी येरूशलम एक अहम स्थान है। यहूदी जहां टैम्पल माउंट के कारण येरुशलम के प्रति श्रद्धा रखते हैं, जबकि मुसलमानों के लिए येरूशलम की अल-अक्शा मस्जिद के कारण इसका महत्व है। मुसलमान अल-अक्शा मस्जिद को सीधे दौर पर इस्लाम के प्रवर्तक मोहम्मद साहब से जोड़कर देखते हैं। इसी तरह इसाइयों के लिए स्पूकबर चर्च के कारण येरूशलम का महत्व है। इसाई मानते हैं कि यहीं ईशा मसीह को सूली पर चढ़ाया गया था। ऐसे में ये स्थान अपना धार्मिक महत्व रखता है।

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