Wednesday, December 6, 2017

जब धोरे बन गए पाकिस्तानी टैंकों का कब्रिस्तान

जिस दिलेरी के साथ भारतीय सेना की 23 पंजाब रेजिमेंट में उस वक्त के मेजर चांदपुरी की अल्फा कम्पनी ने पाकिस्तान की भारी हथियारों से लैस पूरी टैंक ब्रिगेड को मामूली हथियारों के दम पर पूरी रात रोके रखा, वह न सिर्फ भारतीय सेना के सामरिक इतिहास बल्कि दुनिया के जमीनी लड़ाइयों के इतिहास का एक स्वर्णिम अध्याय के रूप में आज भी याद किया जाता है।

-सुरेश व्यास
भारतीय थल सेना की ओर से रीक्रिएट किए गए बैटल ऑफ लोंगोवाला में जब धड़धड़ाते हुए भारतीय सीमा में घुसे पाकिस्तानी टैंकों का मुकाबला जीप माउंटेड छोटी मोर्टार, हल्की मशीन गनों और पारम्परिक राइफलों से करने का दृश्य जीवंत हुआ तो भारत-पाकिस्तान के बीच 1971 में पश्चिम सीमा पर लड़ी गई लोंगोवाला की ऐतिहासक लड़ाई के हीरो रहे ब्रिगेडियर (सेविनवृत्त) कुलदीपसिंह चांदपुरी को भी शायद भरोसा नहीं हुआ होगा कि कैसे उनकी 120 फौजियों की टुकड़ी ने दुश्मन को रात के अंधेरे में ऐसी धूल चटाई कि पौ फटने तक रेत के धोरों पर पाकिस्तानी टैंकों का कब्रिस्तान ही नजर आया। हालांकि लोंगोवाला की लड़ाई में भारतीय वायुसेना के हंटर विमानों की अहम भूमिका रही थी, लेकिन जिस दिलेरी के साथ भारतीय सेना की 23 पंजाब रेजिमेंट में उस वक्त के मेजर चांदपुरी की अल्फा कम्पनी ने पाकिस्तान की भारी हथियारों से लैस पूरी टैंक ब्रिगेड को मामूली हथियारों के दम पर पूरी रात रोके रखा, वह न सिर्फ भारतीय सेना के सामरिक इतिहास बल्कि दुनिया के जमीनी लड़ाइयों के इतिहास का एक स्वर्णिम अध्याय के रूप में आज भी याद किया जाता है।
भारत ने वैसे तो पाकिस्तान के साथ 1971 से पहले दो लड़ाइयां लड़ी थी। पहली आजादी मिलने के तुरंत बाद श्रीनगर में घुस आए कबाइलियों को खदेड़ते वक्त और दूसरी 1965 में, लेकिन लोंगोवाला की लड़ाई राजस्थान से सटी पश्चिम सीमा पर पहली ऐतिहासिक लड़ाई के रूप में दर्ज है। इस लड़ाई के बारे में हालांकि कई बातें सामने आई है और जेपी दत्ता ने अपनी फिल्म बॉर्डर के जरिए हिन्दुस्तानी जनमानस में बैटल ऑफ लोंगेवाला को अमर कर दिया, लेकिन यह विडम्बना ही रही है कि इस लड़ाई के दो अहम किरदारों सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ) और भारतीय वायुसेना को आम लोगों के सामने उतना महत्व नहीं मिल सका, जिसका ये दोनों फोर्सेज हक रखती हैं। यह अलग बात है कि लोंगोवाला की लड़ाई में अदम्य साहस दिखाने के लिए मेजर चांदपुरी को महावीर चक्र व भारतीय वायुसेना के जांबाज आकाशवीरों को सैन्य अलंकरणों से नवाजा गया।
लोंगोवाला की लड़ाई में अहम भूमिका निभाने वाले विंग कमांडर एमएस बावा (जो बाद में एयर मार्शल के पद से रिटायर हुए) को तो लोग लोंगोवाला के सन्दर्भ में जानते हैं, लेकिन बीएसएफ के उस प्लाटून कमांडर और उनकी टीम को बहुत कम लोग जानते हैं, जिसने सबसे पहले पाकिस्तानी टैंकों के आने की आशंका जताई और दुश्मन फौज की रैकी के दौरान रेत के धोरों में लगाए गए मुटामों (राह संकेतकों) को अंधेरा छाने से पहले उल्टा घुमा और इस वजह से दुश्मन की टैंक ब्रिगेड अनजाने इलाके में रेत के धोरों के चारों ओर घूमती रही।
दरअसल, पूर्वी इलाके में बांग्लादेश बनने से पहले पाकिस्तान को मुक्ति वाहिनी से मुकाबला करना पड़ रहा था। इस दौरान पाकिस्तान ने भारत को दबाव में लाने के लिए पश्चिम मोर्चे पर हमला करने की योजना बनाई और रहिमयारखान से पूरी की पूरी टैंक ब्रिगेड और पैदल सेना को भारतीय इलाके पर कब्जा करने का टास्क दिया गया। 4 व  दिसम्बर 1971 की दरम्यानी रात को पाकिस्तान की टैंक ब्रिगेड ने ब्रिगेडियर तारिक मीर की अगुवाई में जैसलमेर जिले के घोटारू के रास्ते लोंगोवाला में प्रवेश किया। इससे पहले बीएसएफ की टुकड़ी ने जब पाकिस्तान मुटाम दिखने और दुश्मन की तैयारी के बारे में भारतीय सेना के अधिकारियों को सूचित किया तो उस पर पहली बार विश्वास तक नहीं किया गया। रामगढ़ स्थित भारतीय फौज के ब्रिगेड मुख्यालय को तो भारतीय वायुसेना ने भी संकेत किए थे, लेकिन उस वक्त के हालात ऐसे थे कि कोई सोच भी नहीं सकता था कि पाकिस्तान पश्चिम मोर्चे पर भी आकस्मिक आक्रमण करेगा। विंग कमांडर बावा व सेना की एरियल आउट पोस्ट के मेजर आतमसिंह की हवाई रैकी में भी पाकिस्तानी फौज की योजना के संकेत मिले, लेकिन इन्हें भी अविश्वसनीय माना गया।
छोटी टुकड़ी का पहाड़ सा हौंसला
आखिर रात करीब साढ़े 12 बजे पाकिस्तान टैंक ब्रिगेड लोंगोवाला में घुस आई और पहला निशाना लोंगोवाला में बीएसएफ की सीमा चौकी बनी। पाकिस्तानी फौज के इस पहले हमले में बीएसएफ के दस ऊंट मारे गए। भारतीय फौज को टैंक ब्रिगेड रोकने के लिए बारूदी सुरंगे बिछाने तक का पूरा मौका नहीं मिला। इधर 65 टैंक, 138 मिलिट्री वाहन, 5 फील्ड एयरगन और दो विमान रोधी तोपों के साथ पाकिस्तानी फौज धड़धड़ाते हुए भारतीय इलाके में घुसी जा रही थी। उसका इरादा लोंगोवाला से घुसकर रामगढ़ के बाद जैसलमेर पर कब्जे का था और उसने पूरी तैयारी के साथ हमला किया था,  लेकिन मेजर चांदपुरी की टुकड़ी के पास टैंकों को उड़ाने वाले पूरे हथियार तक नहीं थे। ऐसे में दो ही विकल्प बचे थे कि या तो भारतीय फौज पीछे हट जाए या फिर पाकिस्तानी फौज को सूर्य की पहली किरण फटने तक रोके रखा जाए। कारण कि उस दौर में भारतीय वायुसेना के पास रात में भी हमला करने वाले विमान नहीं थे और हंटर व मारूत विमान हल्की रोशनी में ही हमला कर सकते थे। लेकिन मेजर चांदपुरी ने कुशल रणनीति से उपलब्ध संसाधनों का बेहतर प्रयोग करते हुए पाकिस्तानी फौज के मुकाबले का फैसला किया और अदम्य साहस दिखाते हुए उनकी अलफा कम्पनी ने पूरे छह घंटे तक पाकिस्तानी फौज को रोके रखा।
पौ फटते ही जलते हुए नजर आए दुश्मन के टैंक
तड़के जैसलमेर से उड़े भारतीय वायुसेना के विमानों ने एक के बाद एक जब पाकिस्तानी टैंकों को उड़ाना शुरू किया तो खुद पाकिस्तानी कमांडर सन्न रह गए। सूरज निकलने तक तो लोंगोवाला में चारों ओर जलते हुए पाकिस्तानी टैंक ही नजर आ रहे थे। लोंगोवाल पहला लड़ाई का मैदान था, जहां 37 पाकिस्तानी टैंक और 100 से ज्यादा मिलिट्री वाहन नष्ट हो गए। कई टैंक भारतीय फौज ने अपने कब्जे में कर लिए। दो सौ पाकिस्तानी सैनिकों को जान गंवानी पड़ी। कम संसाधनों के बावजूद पाकिस्तान के इरादों पर पानी फेरने वाली 23 पंजाब की अल्फा कम्पनी के सिख जवानों ने पाकिस्तानी टेंकों पर चढ़कर भांगड़ा किया। पाकिस्तान फोज के ब्रिगेडियर और कई अफसरों की वर्दियां तक खुल गई। टैंक पर चढ़कर भांगड़ा कर रहे जवानों से घिरे ब्रिगेडियर तारिक मीर की कच्छे बनियान वाली तस्वीर ने समूची भारतीय फौज के हौंसले को सातवें आसमान पर पहुंचा दिया। उस लम्हे की बदौलत ही लोंगोवाला को आज  पाकिस्तानी टैंकों का कब्रिस्तान कहा जाता है।
अब हिम्मत नहीं हो सकती पाकिस्तान की

लोंगोवाला की लड़ाई के संदर्भ में भारतीय और पाकिस्तानी सेनाओं की रणनीतिक चूकों को लेकर कई टीका टिप्पणियां भी हुई, लेकिन आज हालात इतने बदल गए हैं कि पाकिस्तान पश्चिम सीमा की तरफ मुंह उठाकर देखने की हिम्मत तक नहीं कर सकता। आज न तो भारतीय फौज को दुश्मन को रात भर एंगेज रखने की जरूरत पड़ेगी और न ही वायुसेना को पौ फटने का इंतजार करना पड़ेगा। पाकिस्तान पर लोगोंवाला में मिली ऐतिहासिक जीत हर साल 5 दिसम्बर को लोंगोवाला दिवस के रूप में मनाई जाती है। इस बार इस जीत की पूर्व संध्या पर हाल ही जैसलमेर में तैनात की गई भारतीय सेना की 12वीं डिविजन ने लोंगोवाला के सीन को रिक्रिएट करने के बहाने अपनी क्षमता का प्रदर्शन किया तो लोंगोवाला की रणभूमि में मौजूद ब्रिगेडियर चांदपुरी व उनके सहयोगी रहे लेफ्टिनेंट धरमवीर न सिर्फ स्मृतियों में खो गए, बल्कि फौज की तैयारी को देख उनका सीना गर्व से फूल गया।

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