जिस किसी ने मलिक मोहम्मद जायसी के सन् 1540 में रचित महाकाव्य ‘पद्मावत’ के बारे में नहीं सुना, उसे शायद चित्तौड़ की महारानी पद्ममिनी के जौहर के बारे में ही पता था। हमने भी सामाजिक ज्ञान की किताबों में पद्मिनी का जौहर ही पढ़ा है, रानी पद्मावती को तो नहीं पढ़ा।
-सुरेश व्यास
फिल्म पद्मावती को लेकर राजस्थान से उठा विवाद देशभर में
फैलने के बाद इन दिनों हालांकि कुछ शांत हैं, लेकिन इस विवाद ने उन कई लोगों की
कलई खोलकर रख दी, जिन्हें न तो इतिहास की जानकारी है और न ही फिल्मों की। इतिहास
के जिस पात्र को लेकर संजय लीला भंसाली ने फिल्म ‘पद्मावती’ बनाई है, उस पात्र को लेकर तो
राजस्थान ही नहीं देश के इतिहासकार भी अलग अलग मतों में बंटे दिखाई देते हैं। तो
सवाल उठना लाजिमी है कि फिल्म को देखे बिना कैसे किसी ने अंदाज लगा लिया कि फिल्म
में इतिहास के साथ छेड़छाड़ करके समाज विशेष की छवि को खराब करने की साजिश की जा
रही है। उन्माद का आलम देखिए कि जिस चित्तौड़ के किले में रानी पद्मिनी ने जौहर
किया और उस स्मारक को देखने हजारों सैलानी रोज पहुंचते हैं, वहां के एक शिलालेख पर
भी पर्दा डाल दिया गया। और तो और राजस्थान की भाजपा सरकार पद्मिनी का इतिहास नए
सिरे से लिखने की घोषणा कर चुकी है। जबकि विरोध एक फिल्म का किसी वहम के आधार पर
है, जिससे इतिहास भी कोई ताल्लुक नहीं रखता।
कहानी कैसे पता लग गई...?

राष्ट्रमाता हो गई पद्मावती
जिस संगठन ने पद्मावती के विरोध का झण्डा उठाया है, उसके
कुछ नेताओं का एक स्टिंग ऑपरेशन भी एक प्रमुख टीवी चैनल पर सामने आया था, जिसमें
लेनदेन की बात करते संगठन के पदाधिकारी दिखाई दिए थे। फिर भी विरोध का झंडा बरदार
बने संगठन करणी सेना के नेताओं ने फिल्म रीलिज होने से पहले देशभर में ऐसा उन्माद
फेला दिया कि विरोध के कारणों की तह में गए बिना एक मुख्यमंत्री ने तो पद्मावती को
राष्ट्रमाता का सम्बोधन देते हुए अपने राज्य में फिल्म का प्रदर्शन न होने का ऐलान
कर दिया और उन्हीं मुख्यमंत्री के राज्य से आने वाली राजस्थान की मुख्यमंत्री ने
कह दिया कि जब तक फिल्म में वांछित परिवर्तन नहीं हो जाता, वे फिल्म का प्रदर्शन
करने की अनुमति नहीं देगी। जिस फिल्म को
अभी सेंसर बोर्ड की हरी झंडी नहीं मिली, जिस फिल्म को अभी किसी ने देखा नहीं, उस
फिल्म के कथानक को लेकर इतना बवाल कि समूचे देश में एक फिल्म, फिल्मकार और फिल्मी
कलाकार के प्रति घृणा का पहाड़ खड़ा कर दिया गया। अभिनेत्री दीपिका का नाक व
भंसाली का सिर काटकर लाने वालों को करोड़ों के इनाम का ऐलान तक कर दिया गया।
पद्मावती कहां से आई
विवाद के कुछ भी कारण रहे हो, लेकिन इस तथ्य से कोई इनकार
नहीं कर सकता कि जिस किसी ने मलिक मोहम्मद जायसी के सन् 1540 में रचित महाकाव्य ‘पद्मावत’ के बारे में
नहीं सुना, उसे शायद चित्तौड़ की महारानी पद्ममिनी के जौहर के बारे में ही पता था।
हमने भी सामाजिक ज्ञान की किताबों में पद्मिनी का जौहर ही पढ़ा है, रानी पद्मावती
को तो नहीं पढ़ा।
इतिहासकारों की ही सुन लेते
इतिहास से छेड़छाड़ की आशंका जताने वाले लोगों को देश के
प्रसिद्ध इतिहासकार गौरीशंकर हीराचंद ओझा की उस टिप्पणी पर भी गौर करना चाहिए,
जिसमें उन्होंने कहा है कि इतिहास के अभाव में लोगों ने पद्मावत को ऐतिहासिक
पुस्तक मान लिया, परंतु वास्तव में वह आजकल के ऐतिहासिक उपन्यासों की सी कविताबद्ध
कथा है, जिसका कलेवर इन ऐतिहासिक बातों पर रचा गया है कि रतनसिंह चित्तौड़ का
राजा, पद्मिनी उसकी रानी और अल्लाउद्दीन दिल्ली का सुल्तान था,जिसने रतनसिंह से
चित्तौड़ का किला छीना था।
पद्मावत कल्पना है या इतिहास
जैसा कि संजय लीला भंसाली का दावा है कि उनकी फिल्म
पद्मावती जायसी के महाकाव्य के तथ्यों पर आधारित है, तो सवाल उठता है कि जिस
महाकाव्य में इतिहास से ज्यादा कल्पनाशीलता को इतिहासकारों ने भी माना है, उसे
इतिहास क्यों माना जा रहा है। फिल्में कब इतिहास का हिस्सा रही हैं। इस फिल्म में
भी शायद जायसी के महाकाव्य के तथ्यों का ही नाट्य रूपांतरण कर उसे अलग अंदाज में
पेश करने की कोशिश की गई होगी।
एक साल का राजा और...
पद्मावत पर विश्वास करें तो सिंहल देश की राजकुमारी के
सौंदर्य का जिक्र एक तोते हीरामन से सुनकर रतनसिंह मोहित हो गया और वह इतना बैचेन
हो गया कि सिंहल देश पहुंच कर पद्मावती को ब्याह लाया। यदि इतिहास से इस तथ्य को
देखें तो ये सिर्फ कल्पना ही साबित होगी, कारण कि राजस्थान के इतिहास में यह साफ
उल्लेख है कि रतनसिंह का कार्यकाल मात्र एक साल और कुछ महीनों का रहा था। फिर
रतनसिंहर राजा रहते हुए कैसे सिंहल प्रदेश पहुंच गया, वहां से पद्मावती को ब्याह
लाया और खिलजी की कैद से छूटने के बाद पड़ोस के राज्य से जंग से घायल होने के बाद
फौत हो गया। जायसी ने जिस सिंहल प्रदेश, हीरामन तोते और पड़ोसी राजा का जिक्र किया
है, इतिहासकार उसे मान्यता ही नहीं देते। जायसी की कल्पना में यदि खिलजी पद्मिनी
पर मोहित होता है तो उसे इतिहास का हिस्सा तो नहीं माना जा सकता।
फिल्म तो फिल्म है
फिल्में तो मनोरंजन के लिए बनती हैं। संजय लीला भंसाली की
ही फिल्म बाजीराव मस्तानी को ही अगर मनोरंजन के इत्तर इतिहास से जोड़कर देखा गया
होता तो महाराष्ट्र में बवाल नहीं मच गया होता। देश में ऐतिहासिक पात्रों को लेकर
कई फिल्में बनी हैं, उन्हें तो फिल्म की तरह ही लिया गया, फिर पद्मावती पर इतना
बवाल क्यों? इस मामले
में केंद्रीय मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी के उस बयान की सराहना की जानी चाहिए,
जिसमें उन्होंने कहा था कि फिल्म को फिल्म की नजर से ही देखा जाना चाहिए। जिस जिन
फिल्मों में इतिहास और भूगोल खोजा जाने लगेगा, उस दिन फिल्म फिल्म नहीं रह जाएगी।
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